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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२९७

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पदमावती रत्नसेन भेंट खंड

सुनु धनि! डर हिरदय तब ताईं। जौ लगि रहसि मिलै नहिं साईं॥
कौन कली जो भौंर न राई। डार न टूट पुहुप गरुआई॥
मातु पिता जो बियाहै सोई। जनम निबाह कंत सँग होई॥
भरि जीवन राखै जहँ चहा। जाइ न मेंटा ताकर कहा॥
ताकहँ बिलँब न कीजै बारी। जो पिउ आयसु सोइ पियारी॥
चलहु बेगि आयसु भा जैसे। कंत बोलावै रहिए कैसे॥
मान न करसि, पोढ़ करु लाड़ू। मान करत रिस मानै चाड़ू॥
साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट।
तन मन जोबन, साजि के देइ चली लेइ भेंट॥ १२ ॥
पदमिनि गवन हंस गए दूरी। कुंजर लाज मेल सिर धूरी॥
बदन देखि घट चंद छपाना। दसन देखि कै बीजु लजाना॥
खंजन छपे देखि कै नैना। कोकिल छपी सुनत मधु बैना॥
गीव देखि कै छपा मयूरू। लंक देखि कै छपा सदुरू॥
भौहन्ह धनुक छपा आकारा। बेनी बासुकि छपा पतारा॥
खड़ग छपा नासिका बिसेखी। अमृत छपा अधर रस देखी॥
पहुचहिं छपी कवँल पौनारी। जंघ छपा कदली होइ बारी॥
अछरी रूप छपानी, जबहेिं चली धनि साजि।
जावत गरब गहेली, सबै छपीं मन रागि॥ १३ ॥
मिलीं गोहने सखी तराईं। लेइ चाँद सूरज पहँ आईं॥
पारस रूप चाँद देखराई। देखत सूरज गा मुरछाई॥
सोरह कला दिस्टि ससि कीन्ही। सहसौ कला सुरुज कै लीन्ही॥
भा रबि अस्त, तराईं हँसी। सूर न रहा, चाँद परगसी॥
जोगी आहि न भोगी होई। खाइ कुरकुटा गा पै सोई॥
पदमावति जसि निरमल गंगा। तू जो कत जोगी भिखमंगा॥
आइ जगावहिं ‘चेला जागै। आवा गुरू, पाय उठि लागे'॥
बोलहिं सबद सहेली, कान लागि, गहिं माथ।
गोरख आइ ठाढ़ भा, उठु रे चेला नाथ!॥ १४ ॥


(१२) राई = अनुरक्त हुई। डार न टूट...गरुआई = कौन फूल अपने बोझ से ही डाल से टूटकर न गिरा। पोढ़ = पुष्ट। लाडू = लाड़, प्यार, प्रेम। चाडू = गहरी चाहवाला। साजन = पति। (१३) मेल = डालता है। सदुरु = शादुर्ल, सिंह। पहुँचा = कलाई। पौनारी = पद्मनाल। खड़ग छपा = तलवार छिपीं (म्यान में)। बारी होइ = बगीचे में जाकर। गरब गहेली = गर्व धारण करनेवाली। (१४) गोहने = साथ में। कुरकुटा = अन्न का टुकड़ा; मोटा रूखा अन्न। पे = निश्चयवाचक, ही। नाथ = जोगी (गोरखपंथी साधु नाथ कहलाते हैं)।