पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२९७

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पदमावती रनसेन भेंट खंड ११. सुनु धनि ! डर हिरदय तब ताई। जौ लगि रहसि मिलै नह साईं । कौन कली जो भौंर न राई। डार न टूट पुहु गरुआई ॥ मातु पिता जो बियाहै सोई। जनम निबाह कंत सँग होई ॥ भरि जीवन रातें जद चहा। जाइ न मेंटा ताकर कहा। ताकतें बिलंब न कीजू बारा । जो पिउ आायसु सोइ पियारी ॥ चलहु बेगि घायलु भा जैसे । कंत बोलावे रहिए कैसे ॥ मान न करसि, पोढ़ करु लाड । मान करत रिस माने चाड़ ।। जन लइ पठात्रा, आायसु जाइ न मेट । तन मन जोबन, साजि के देइ चली लेड फ्रेट 1 १२ । पदमिनि गवन हंस गए दूरी । कुंजर लाज मेल सिर धूरी ॥ बदन देखि घट चंद पाना। दसन देखि के बी लजाना । खंजन छपे देखि के नैना। कोकिल छपी सुनत मधु बैना ॥ गीव देख़ि है छया मयरू। लंक देखि के छपा सदुरू । भौहन्ह धनुक छपा शाका।। बेनी बासुकि ख्पा पतारा । खड़ग छपा नासिका बिसेखी। मुमत छपा अधर रस देखो । हुचहि पी कर्बल पौनारी॥ । जंघ छपा कदली होइ बारी आंछरी रूप छपानी, जबहेिं चली वनि साजि । जावत गहली, सवे छपीं मन रागि 1 १३ मिलीं गोहने सखी तराई । लेइ चाँद सूरज पह आई । ॥ पारस रूप चाँद देखराई। देखत सूरज गा मुराई। सोरह कला दिटि ससि कीन्ही। सहसौ कला सुरुज के लोन्ही ॥ भा रवि अस्ततराई लैस। सूर न रहा, चाँद परगसो । जोगी ग्राहि न भोगो होई । खे।इ कुरकुटा गा पे पदमावति जसि निरमल गंगा। त जो कत जोगी भिखमंगा। आइ जगावह ‘चेला जागे। घावा गुरूपाय उठि लागे'। बोलति सबद सहेली, कान लागि, गहि माथ । गोरख नाइ ठाढ़ भा, उठ रे चेला नाथ ! ॥ १४ । (१२) अनुरक्त राई = हई । डार न ट..गरुनाई = कौन फूल अपने बोझ से से कर गिरा। पोढ़ = । लाडू = प्रेम। ही डाल न पुष्ट लाड़, प्यार, चाड गहो साजन

चाहवाला। = पति । (१३) मेल = डालता है । सशुरु

शालसि; । पहुँचा कलाई । पौतारी = पद्मनाल । खड़ग छछा = तलवार गरब छिपी (म्यान में) । वारो होइ = बगोत्र में जाकर। गहलो = गर्व धार करनेवालो। (१४) गोहने के साथ में । कुरकुटा = अन्न का टुकड़ा; मोटा रूखा ग्रन्न । पे = निश्चयवाचक, ही । नाथ = जोगो (गोरखपंथी साधु नाथ कहलाते हैं) ।