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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/२९८

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११६
पदमावत

सुनि यह सबद अमिय अस लागा। निद्रा टूटि, सोइ अस जागा।[]
गही बाँह धनि सेजवाँ आनी। अंचल ओट रही छपि रानी॥
सुकुचै डरै मनहिं मन बारी। गहु न बाँह, रे जोगि भिखारी? ॥
ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी। आवै बास कुरकुटा केरी॥
देखि भभूति छूति मोहि लागै। काँपै चाँद, सूर सौं भागै॥
जोगि तोरि तपसी कै काया। लागि चहै मोरे अँग छाया॥
बार भिखारि न माँगसि भीखा। माँगे आइ सरग पर सीखा॥
जोगि भिखारी कोई, मँदिर न पैठे पार।
माँगि लेहु किछू भिच्छा, जाइ ठाढ़ होइ बार॥ १५ ॥
मैं तुम कारन, पेम पियारी। राज छाँड़ि कै भयेउ' भिखारी॥
नेह तुम्हार जो हिये समाना। चितउर सौं निसरेउँ होई आना॥
जस मालति कहँ भौंर बियोगी। चढ़ा बियोग, चलेउँ होइ जोगी॥
भौंर खोजि जस पावै केवा। तुम्ह कारन मैं जिउ पर छेवा॥
भएउ भिखारि नारि तुम्ह लागी। दीप पतँग होइ अँगएउँ आगी॥
एक बार मरि मिले जो आई। दूसरि बार मरै कित जाई॥
कित तेहि मीचु जो मरि कै जीया? । भा सो अमर, अमृत मधु पीया॥
भौंर जो पावै कँवल कहँ, बहु आरति, बहु आस।
भौंर होइ नेवछावरि, कँवल देइ हँसि बास॥ १६ ॥
अपने मुँह न बड़ाई छाजा। जोगी कतहुँ होहिं नहिं राजा॥
हौं रानी, तू जोगि भिखारी। जोगिहिं भोगिहि कौन चिन्हारी? ॥
जोगी सबै छंद अस खेला। तू भिखारि तेहि माहिं अकेला॥
पौन बाँधि अपसवहिं अकासा। मनसहिं जाहिं ताहि के पासा॥
एही भाँति सिस्टि सब छरी। एही भेख रावन सिय हरी॥
भौरहिं मीचु नियर जब आवा। चंपा बास लेइ कहँ धावा॥
दीपक जोति देखि उजियारी। आइ पाँखि होइ परा भिखारी॥
रैन जो देखै चंदमुख, ससि तन होइ अलोष।
तुहु जोगी तस भूला, करि राजा कर ओप॥ १७ ॥
अनु, धनि तू निसिअर निसि माहाँ। हौं दिनिअर जेहि कै तू छाहाँ॥


(१५) बार = द्वार। पैठे पार = घुसने पाता है। (१६) होइ आना = अन्य अर्थात् योगी होकर। केवा = कमल। छेवा = फेंका, डाला (सं० क्षेपण), या खेला। अँगएउँ = अँगेजा, शरीर पर सहा। (१७) चिन्हारी = जान पहचान। छंद = कपट, धूर्तता। तेहि माहिं अकेला = उनमें एक ही धुर्त है। अपसवहिं = जाते हैं। मनसहिं = मन में ध्यान या कामना करते हैं। (१८) निसिअर = निशाकर, चंद्रमा। अनु = (अव्य०) फिर, आगे।

  1. पाठांतर — गोरख सबद सिद्ध भा राजा। राजा सुनि रावन होइ गाजा॥