पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३२६

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(३२) रत्नसेन विदाई खंड

रतनसेन बिनवा कर जोरी । अस्तुति जोग जीभ नहिं मोरी॥
सहस जीभ जौ होहिं, गोसाईं । कहि न जाइ अस्तुति जहँ ताई॥
काँच रहा तुम कंचन कीन्हा । तब भा रतन जोति तुम दीन्हा॥
गंग जो निरमल नीर कुलीना। नार मिले जल होइ मलीना॥
पानि समुद्र मिला होइ सोती । पाप हरा, निरमल भा मोती।
तस ही अहा पलीनी कला । मिला पाइ तुम्ह, भा निरमला।
तुम्ह मन अावा सिंघरपुरी । तुम्ह तैं चढ़ा राज औ कुरी॥

सात समुद तुम राजा, सरि न पाव कोइ खाट । .
सबै आइ सिर नावहिं, जहँ तुम साजा पाट॥१॥

अब विनती एक करौं, गोसाईं। तौ लगि कया जीउ जब ताईं॥
पावा आजु हमार परेवा । पाती यानि दीन्ह मोहि देवा!
राज काज औ भुइँ उपराहीं। सत्र भाइ सन कोई नाहीं॥
आपन आपन करहि सो लीका । एकहि मारि एक चह टीका॥
भए अमावस नखतन्ह राजू । हम्ह के चंद चलावहु आजू॥
राज हमार जहाँ चलि आवा। लिखि पठइनि अब होइ परावा॥
उहाँ नियर दिल्ली सुलतानू । होइ जो भोर उठै जिमि भानू॥

रहह अमर महि गगन लगि तुम महि लेइ हम्ह पाउ॥
सीस हमार तहाँ निति जहाँ तुम्हारा पाउ॥२॥


राजसभा पुनि उठी सवारी। 'अन , बिनती राखिय पति भारी॥
भाइन्ह माहँ होइ जिनि फूटी। घर के भेद लंक अस टूटी॥
विरवा लाइ न सूखै दीजै। पावै पानि दिस्टि सो कीजै॥
पानि रखा तुम दीपक लेसी। पै न रहै पाहन परदेसी॥
जाकर राज जहाँ चलि आवा । उहै देस पै ताकहँ भावा।
हम तुम नैन घालि कै राखे। ऐसि भाख एहि जीभ न भाखें।


(१) कुरी= कुल, कुलीनता। खाट = खटाता है, ठहरता है। सरि न पाव...खाट-बराबरी करने में कोई नहीं ठहर सकता। (२) देवा-हे देव ! उपराहीं = ऊपर । लीका करहि =अपना सिक्का जमाते हैं। लीका = थाप । हम्ह कै चाँद...अाजू = उन नक्षत्रों के बीच चंद्रमा (उनका स्वामी बनाकर हमें भेजिए । भोर- (क) प्रभात, (ख) भला हवा, असावधान । महि लइ... प्राउ = पृथ्वी पर हमारी प्रायु लेकर। (३) राजसभा = रत्नसेन के साथियों की सभा । सवारी- सब । अनु - हाँ, यही बात है। फटी = फट । दीपक लेसी = पद्मावती ऐसा दीपक प्रज्वलित करके । पाहुन = अतिथि।