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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३५२

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१७०
पदमावत

जाने जगत कँवल कै करी। तोहि अस नहि नागिनि विष भरी॥
तुइँ सब लिए जगत के नागा। कोइल भेस न छाँड़ेसि कागा॥
तृ भुजइल, हौं हँसिनि भोरी। मोहि तोहि मोति पोति कै जोरी॥
कंचन करी रतन नग वाना। जहाँ पदारथ सोह न आना॥
तू तो राहु, हौं ससि उजियारी। दिनहि न पूजै निसि अँधियारी॥

ठाढ़ि हेसि जेहि ठाई, मसि लागै तेहि ठाव्।
तेहि डर राँघ न बेठौं, मकु साँवरि होइ जावँ॥ ६ ॥

 

कँवल सो कौन सोपारी रोठा। जेहि के हिये सहस दस कोठा॥
रहै न झाँपें आपन गटा। सो कित उघेलि चहै परगटा॥
कँवल पत्र तर दारिऊँ, चोली। देखे सूर देसि है खोली॥
ऊपर राता, भीतर पियरा। जारौं ओहि हरदि अस हियरा॥
इहाँ भँवर मुख बातन्ह लाबसि। उहाँ सुरुज कहँ हसि बहरावसि॥
सब निसि तपि तपि मरसि पियासी। भोर भए पावसि पिय वासी॥
सेजवाँ रोइ रोइ निसि भरसी। तू मोसौं का सरवरि करसी? ॥

सुरुज किरिन बहरावै, सरवर लहरि न पूज।
भँवर हिया तोर पावै, धूप देह तोरि भूंज ॥ ७ ॥

 

मैं हों कँवल सुरुज कै जोरी। जौं पिय आपन तौ का चोरी? ॥
हौं ओहि आापन दरपन लेखौं। करौं सिंगार, भोर मुख देखौं॥
मोर बिगास आहिक परगासू। तू जरि मरसि निहारि अकासू॥
हौं ओहि सौं, वह मोसौं राता। तिमिर बिलाइ होत परभाता॥
कँवल के हिरदय महँ जो गटा। हरि हर हार कोन्ह, का घटा? ॥
जाकर दिवस तेहि पहँ आवा। कारि रैनि कित देखै पावा॥
तू ऊमर जेहि भीतर माखी। चाहहिं उड़ै मरन के पाँखी॥

धूप न देखहि विषभरी, अमृत सो सर पाव।
जैहि नागिनि डस सो मरै, लहरि सुरुज कै आव॥८॥

 

फल न कँवल भानु बिनु ऊए। पानी मैल होइ जरि छूए ॥
फिरहिं भँवर तोरे नयनाहाँ। नीर बिसाइँध होइ तोहि पाँहा॥


कागा = कौवापन। भुँजइल = भुजंगा पक्षी। पोत = काँच या पत्थर गुरिया। मसि = स्याही। राँध पास, समीप। (७) रोठा = रोड़ा, टुकड़ा। जेहि के हिये..कोठा = कँवलगट्टे के भीतर बहुत से बीजकोश होते हैं। गटा = कँवलगट्टा। उघेलि = खोलकर। दारिउँ = अनार के समान कँवलगट्टा जो तेरा स्तन है। निसि भरसी = रात बिताती है तू। करसो = तू करती है। सरवर...पूज = ताल की लहर उसके पास तक नहीं पहुँचती, वह जल के ऊपर उठा रहता है। भूँज = भूनती है। (८) हरि हर हार कीन्ह = कमल की माला विष्णु और शिव पहनते हैं। मरन के पाँखी = कीड़ों को जो पंख अंत समय में निकलते हैं। (९) जरि = जड़ मूल।