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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३५३

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नागमती-पद्मावती-विवाद खंड

मच्छ कच्छ दादुर कर बासा। वग अस पंखि बसहिं तोहि पासा॥
जे जे पंखि पास तोहि गए। पानी महँ सो बिसाइँध भए॥
जौ उजियार चाँद होड़ ऊआ। बदन कलंक डोम लेइ छूआ॥
मोहि तोहि निसि दिन कर वीचू। राहु के हाथ चाँद के मीचू॥
सहस बार जौ धोवै कोई। तौह बिसाइँध जाइ न धाई॥

काह कहौं ओहि पिय कहँ, मोहि सिर धरेसि अंगारि॥
तेहि के खेल भरोसे, तुइ जीती, मैं हारि॥९॥

 

तोर अकेल का जीतिउँ हारू। मैं जीतिउँ जग कर सिंगारू॥
बदन जितिउँ सो ससि उजियारी। बेनी जितिउँ भुअंगिनि कारी॥
नैनन्ह जितिकें मिरिग के नैना। कंठ जितिई कोकिल के बैना॥
भौंह जितिउँ अरजुन धनुधारी। गोउ जितिउँ तमचूर पुछारी॥
नासिक जितिउँ पुहुप तिल, सूआ। सूक जितिउँ बेसरि होइ ऊआ॥
दामिनि जितिउँ दस दमकीहीं। अधर रंग जितिउँ बिबाहीं॥
केहरि जितिउँ लंक मैं लीन्ही। जितिउँ मराल, चाल वै दीन्ही॥

पुहुप बास मलयागिरि निरमल अंग बसाइ।
न नागिनि आसा लुबुध डससि काहु कहँ जाइ॥ १० ॥

 

का तोहि गरब सिंगार पराए। अबहीं लैहौं लूट सब ठाएँ॥
हौं साँवरि सलोन मोर नैना। सेत चीर, मुख चातक बैंना॥
नासिक खरग, फूल धुव तारा। भौंहें धनुक गगन गा हारा॥
हीरा दसन सेत औ सामा। छपै बीजु जौ बिहँसै बामा॥
बिदुम अधर रंग रस राते। जूड़ अमिय अस, रवि नहि ताते॥
चाल गयंद गरब अति भरी। बसा लंक, नागेसर करी॥
साँवरि जहाँ लोनि सुठि नीकी। का सरवरि तू करसि जो फीकी॥

पुहुप बास औ पवन अधारी, कवँल मोर तरहेल॥
चहौं केस धरि नावौ, तोर मरन मोर खेल॥ ११ ॥

 

पदमावति सुनि उतर न सही। नागमती नागिनि जिमि गही॥
वह ओहि कहँ, वह ओहि कहँ गहा। काह कहौं तस जाइ न कहा॥
दुवौ नवल भरि जोबन गाजैं। अछरी जनहुँ अखारे बाजै॥
भा बाहुँन बाहुँन सौं जोरा। हिय सौं हिय, कोइ बाग न मोरा॥


डोम छूआ = प्रवाद है कि चंद्रमा डोमों के ऋणी हैं; वे जब घेरते हैं तब ग्रहण होता हैं। (१९) नासा लुबुध = सुगंध की आाशा से साँप चंदन में लिपटे रहते हैं। (११) सिंगार पराए = दूसरों में लिया सिंगार जैसा कि ऊपर कहा है। आमिय...ताते = उन अधरों में बालसूर्य की

ललाई है पर वे अमृत के समान हैं, गरम नहीं। नागेसर करी = नागेसर फूल की कली। तरहेल = नीचे पड़ा हुआा अधीन। (१२) बाजैं = लड़ती है। बाग न मोरा = बाग नहीं मोड़त, अर्थात् लड़ाई से हटती नहीं।