पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(४२) बादशाह चढ़ाई खंड

सुनि अस लिखा उठा जरि राजा। जानौ दैउ तड़पि घन गाजा॥
का मोहि सिंघ देखावसि आई। कहौं तौ सारदूल धरि खाई॥
भलेहिं साह पहुमीपति भारी। माँग न कोउ पुरुष कै नारी॥
जो सो चक्कवै ताकहँ राजू। मँदिर एक कहँ आपन साजू॥
अछरी जहाँ इंद्र पै आवै। और न सुनै न देखै पावै॥
कंस राज जीता जो कोपी। कान्ह न दीन्ह काहु कहँ गोपी॥
को मोहिं त अस सूर अपारा। चढ़ै सरग खसि परै उतारा॥

को तोहि जीव मरावौं सकत आान के दोष?
जो नहिं बुझै समद्र जल, सो बुझाई कित ओस ?॥ १॥

 

राजा! अस न होहु रिस राता। सुनु होइ जूड़ न जरि कहु बाता॥
मैं हौं इहाँ मरै कहँ आवा। बादशाह अस जानि पठावा॥
जो तोहि भार न औरहि लेना। पूछहि कालि उतर है देना॥
बादशाह कहँ ऐस न बोलू। चढ़ै तौ परै जगत महँ डोलू॥
सूरहिं चढ़त न लागहि बारा। तपै आगि जेहि सरग पतारा॥
परबत उड़हिं सूर के फूँके। यह गढ़ छार होइ एक झूँके॥
धँसै सुमेरु समुद गा पाटा। पुहुमी डोल सेस फन फाटा॥

तासौं कौन लड़ाई? बैठहु चितउर खास।
ऊपर लेहु चँदेरी, का पदमिनि एक दासि? ॥ २ ॥

 

जौ पै घरनि जाई घर केरी। का चितउर का राज चँदरी॥
जिउ न लेइ घर कारन कोई। सो घर देइ जो जोगी होई॥
हौं रनथँभउर नाह हमीरू। कैलपि माथ जेइ दीन्ह सरीरू॥
हौं सो रतनसेन सकबंधी। राहु बेधि जीता सैरंधी॥
हनुवँत सरिस भार जेइ काँधा। राघव सरिस समुद जो बाँधा॥
विक्रम सरिस कीन्ह जेइ साका। सिंघलदीप लीन्ह जौ ताका॥
जौ अस लिखा भएउँ नहिं ओछा। जियत सिंघ कै गह को मोछा॥


(१) दैउ (देव) आाकाश में। मँदिर एक कहँ साजू = घर बचाने भर का मेरे पास भी सामान है। पै = ही। कोपी = कोप करके। सकत = भरसक। दोस = दोष। (२) राता = लाल। जो तोहि भार लेना = तेरी जवाबदेही तेरे ऊपर है। डोलू = हलचल। बारा = देर। जेहि = जिसकी। (३) घरनि = गृहिणी, स्त्री। जिउ न लेइ = चाहै जी ही न ले ले। मीरू = रणथभौर गढ़ का राजा हम्मीर। सकबंधी = साका चलानेवाला। सैरंधी = सैंरधी द्रौपदी। राहु = रोहू मछली।