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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३७७

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बादशाह चढ़ाई खंड

दीन्ह साह हँसि बीरा, और तीन दिन बीच।
तिन्ह सीतल को राखै, जिनहिं अगिनि महँ मीचु? ॥१४॥

 

रतनसेन चितउर महँ साजा। आइ बजार बैठ सब राजा॥
तोवँर बैस पवाँर सो आए। औ गहलौत आइ सिर नाए॥
पत्ती औ पँचवान बघेले। अगरपार चौहान चँदेले॥
गहरवार परिहार जो कुरे। औ कलहंस जो ठाकुर जुरे॥
आगे ठाढ़ बजावहिं ढाढ़ी। पाछे धुजा मरन कै काढ़ी॥
बाजहिं सिंगि संख औ तूरा। चंदन खेवरै भरे सेंदुरा॥
सजि संग्राम बाँध सब साका। छाँड़ा जियन, मरन सब ताका॥

गगन धरति जेइ टेका, तेहि का गरू पहार।
जौ लहि जिउ काया महँ, परै सो अँगवै भार॥१५॥

 

गढ़ तस राजा जौ चाहै कोई। बरिस बीस लगि खाँग न होई॥
बाँके चाहि बाँक गढ़ कीन्हा। औ सब कोट चित्र कै लीन्हा॥
खंड खंड चौखंड सँवारा। धरी विषम गोलन्ह कै मारा॥
ठावँहि ठावँ लीन्ह तिन्ह बाँटी। रहा न बीचु जो सँचरै चाँटी॥
बैठे धानुक कँगुरन कँगुरा। भूमि न आँटी अँगुरन अँगुरा॥
औ बाँधे गढ़ गज मतवारे। फाटै भूमि होहि जौ ठारे॥
बिच बिच बुर्ज बने चहुँ फेरी। बाजहिं तबल ढोल औ भेरी॥

भा गढ़ राज सुमेरु जस, सरग छुवै पै चाह।
समुद न लेखे लावै, गंग सहसमुख काह? ॥१९॥

 

बादशाह हठि कीन्ह पयाना। इंद्र भंडार डोल भय माना॥
नबे लाख असवार जो चढ़ा। जो देखा सो लोहे मढ़ा॥
बीस सहस घहराहिं निसाना। गलगंजहिं भेरी असमाना॥
बैरख ढाल गगन गा छाई। चला कटक धरती न समाई॥
सहस पाँति गज मत्त चलावा। धँसत अकास धसत भुइँ आवा॥
बिरिछ उचारि पेड़ि सौं लेहिं। मस्तक झारि डारि मुख देहीं॥
चढ़हि पहार हिये भय लागू। बनखंड खोह न देखहि आगू॥

कोई काह न सँभारै, होत आव तस चाँप।
धरति आपु कहँ काँपै; सरग आपु कहँ काँप ॥१७॥

 

(१५) कुरै = कुल। ढाढ़ी बाजा बजानेवाली एक जाति। खेवे = खौर लगाए हुए। अँगवै = ऊपर लेता है, सहता है। (१६) तस = ऐसा। खाँग = सामान की कमी। बाँके चाहि बाँक = विकट से विकट। मारा = माला, समूह। बीचु = अंतर खाली जगह। संचरै = चले। चाँटी = चींटी। ठारे = ठाढ़े, खड़े। सहसमुख = सहस्त्र धारावाली।(१७) इंद्रभँडार = इंद्रलोक। बैरख = बैरक झंडे। पेड़ी = पेड़ी, तना। आगू = आगे। चाँप = रेलपेल धक्का।