चलीं कमानैं जिन्ह मुख गोला। आवहिं चली, धरति सब डोला॥
लागे चक्र बज्र के गुढ़े। चमकहिं रथ सोने सब मढ़े॥
तिन्ह पर विषम कमानैं धरी। साँचे अष्टधातु कै ढरी॥
सौ सौ मन वै पीयहिं दारू। लागहिं जहाँ सो टूट पहारू॥
मानौ रहहिं रथन्ह पर परी। सत्रुन्ह महँ ते होहिं उठी खरी॥
जौ लागै संसार न डोलहिं। होई भुइँकप जीभ जौ खोलहिं॥
सहस सहस हस्तिन्ह कै पाँती। खींचहिं रथ, डोलहिं नहिं माती॥
नदी नार सब पाटहिं, जहाँ धरहिं वै पाव।
ऊँच खाल बन बीहड़, होत बराबर आव ॥१८॥
कहौं सिंगार जैसि वै नारी। दारू पियहि जैसि मतवारी॥
उठे आगि जौ छाँड़हि साँसा। धुआँ जौ लागै जाइ अकासा॥
सेंदुर आगि सीस उपराहीं। पहिया तरिवन चमकत जाहीं॥
कुच गोला दुइ हिरदय लाए। चंचल धुजा रहहिं छिटकाए॥
रसना लूक रहहिं मुख खोले। लंका जरै सो उनके बोले॥
अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधे। खींचहिं हस्ती, टूटहिं काँधे॥
बीर सिंगार दोउ एक ठाऊँ। सत्रुसाल गढ़भजन नाऊँ॥
तिलक पलीता माथे, दसन ब्रज के बान।
जेहि हेरहिं तेहि मारहिं, चुरकुस करहिं निदान॥ १९ ॥
जेहि पंथ चली वै आवहिं। तहँ तहँ जरै, आगि जनु लावहिं॥
जरहिं जो परबत लागि अकासा। बनखँड धिकहिं परास के पास॥
गैंड गंयद जरे भए कारे। औ बन मिरिग रोझ भवँकारे॥
कोइल, नाग काग औ भंवरा। और जो जरे तिनहिं को सँवरा॥
जरा समुद पानी भा खारा। जमुना साम भई तेहि झारा॥
धुआँ जाम, अँतरिख भए मेघा। गगन साम भा धुआँ जो ठेघा॥
सूरुज जो चाँद औ राहू। धरती जरी, लंक भा दाहू॥
धरती सरग एक भा, तबहुँ न आगि बझाइ।
उठ बज्र जरि डुंगवै, धूम रहा जग छाई॥ २० ॥
(१८) कमानैं = तोपें। चक्र = पहिए। दारु (क) बारूद; (ख) शराब। माती = मतवाली 'दारू शब्द का प्रयोग कर चुके हैं इसलिये। बराबर = समतल। (१९) कहौं सिंगार मतवारी = इन पद्यों में तोपों को स्त्री के रूपक में दिखाया है। तरिवन = तांटक नाम का कान का गहना। टूटहिं कांधे = साथियों के कंधे टट जाते हैं। बीर सिंगार = बीररस और श्रृंगाररस। बान = गोले। हेरहिं = ताकती हैं। चुरकुस = चकनाचूर। (२०) धिकहिं = तपते हैं। परास के बनखँड = पलास के लाल फूल जो दिखाई देते हैं वे मानो बन के तपे हुए अंश हैं। गैंड = गैंडा। रोझ = नीलगाय। झँवकारे = झाँवरे। ठेघा = ठहरा, रुका। डुंगवै = डूँगर, पहाड़। उठे बज्र जरि छाइ = इस बज्र से (जैसे कि इंद्र के बज्र से) पहाड़ जल उठे।