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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३८०

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पदमावत

बैरख ढाल केरि परछाहीं। रैनि होति आवै दिन माहीं॥

अंध कूप भा आवै, उड़त आव तस छार।
ताल तलावा पोखर धूरि भरी जेवनार॥ २३ ॥

 

राजै कहा करहु जो करना। भएउ असूझ, सूझ अब मरना॥
जहँ लगि राज साज सब होऊ। ततखन भएउ सँजोउ सँजोऊ॥
बाजे तबल अकूत जुझाउ। चढ़े कोपि सब राजा राऊ॥
करहिं तुखार पवन सौं रीसा। कंध ऊँच, असवार न दीसा॥
का बरनौं अस ऊँच तुखारा। दुइ पौरी पहुँचे असवारा॥
बाँधे मोरछाँह सिर सारहिं। भाँजहिं पूछ चँबर जनु ढारहि॥
सजे सनाहा, पहुँची, टोपा। लोहसार पहिरे सब ओपा॥

तैसे चँवर बनाए, औ घाले गलझंप।
बँधे सेत गलगाह तहँ, जो देखै सो कंप ॥२४॥

 

राज तुरंगम बरनौ काहा? । आने छोरि इंद्ररथ बाहा॥
ऐस तुरंगम परहिं न दीठी। धनि असवार रहहिं तिन्ह पीठी!॥
जाति बालका समुद थहाए। सेत पूँछ जनु चँवर बनाए॥
बरन बरन पाखर अति लोने। जान, चित्र सँवारे सोने॥
मानिक जरे सीस औ काँधे। चँवरलाग चौरासी बाँधे॥
लागे रतन पदारथ हीरा। बाहन दीन्ह, दीन्ह तिन्ह बीरा॥
चढ़हि कुँवर मन करहिं उछाहू। आगे घाल गनहिं नहि काहू॥

सेंदूर सीस चढ़ाए, चंदन खेवरे देह।
सो तन कहा लुकाइय, अंत होइ जो खेह ॥२५॥

 

गज मैमत बिखरे रजबारा। दीसहिं जनहुँ मेघ अति कारा॥
सेत गयंद, पीत औ राते। हरे साम घूमहिं मद माते॥
चमकहिं दरपन लोहे सारी। जनु परबत पर परी अँबारी॥
सिरी मेलि पहिराई सूँड़ै। देखत कटक पायँ तर रूदैं॥
सोना मेलि कै दंत सँवारे। गिरिबर टरहिं सो उन्ह के टारे॥
परबत उलटि भूमि महँ मारहिं। परै जो भीर पत्र अस झारहिं॥
अस गंयद साजे सिंघली। मोटी कुरुम पीठि कलमली॥


बैरख = झंडा। परछाहीं = परछाई से। जेवनार = लोगों को रसोई में। (२४)सँजोऊ = तैयारी। अकूत= एकाएक सहसा अथवा बहुत से। जभाऊ = युद्ध के। तुखार = घोड़ा। रीसा = ईर्ष्या, बराबरी। पौरी = सीढ़ी के डडे। मोरह = मोरछल। सनाहा = बकतर। पहुँची = बचाने का आवरण। ओपा = चमकते हैं। गलझप = गले की फूल (लोहे की)। गजगाह = हाथी की झूल। (२५) इंद्ररथ बाहा = इद्र का रथ खींचनेवाले। बालका = टाँगन घोड़े। पाखर = झूल। चौरासी = घुघुरुओं का गुच्छा। बाहन दीन्ह बीरा = जिनको सवारी के लिये वे घोड़ दिए उन्हें लड़ाई का बीड़ा भी दिया। घालि गनहिं नहिं = कुछ नहीं समझते। सेंदूर = यहाँ रोली समझना चाहिए। खेवरे = खौर, खौर लगाए हुए।