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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/३८४

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पदमावत

भलेहि चाँद बड़ होइ दिसि पाई। दिन दिनअर सहुँ कौन बड़ाई॥
अहे जो नखत चंद सँग तपे। सूर के दिस्टि गगन महँ छपे॥
कैं चिंता राजा मन बूझा। जो होइ सरग न धरती जूझा॥
गढ़पति उतरिं लड़ै नहिं धाए। हाथ परै गढ़ हाथ पराए॥
गढ़पति इंद्र गगन गढ़ राजा। दिवस न निसर रैनि कर राजा॥
चंद रैनि रह नखतन्ह माँझा। सुरुज के सौंह न होइ चहै साँझा॥

देखा चंद भोर भा, सूरुज के बड़ भाग।
चाँद फिरा भा गढ़पति, सूर गगन गढ़ लाग॥ ६ ॥

 

कटक असूझ अलाउदिं साही। आवत कोइ न सँभारै ताही॥
उदधि समुद जस लहरैं देखी। नयन देख मुख जाइ न लेखी॥
केते तजा चितउर कै घाटी। केते बजावत मिलि गए माटी॥
केतेन्ह नितहिं देइ नव साजा। कबहुँ न साज घटै तस राजा॥
लाख जाहिं आवहिं दुइ लाखा। फरै झरै उपनै नव साजा॥
जो आवै गढ़ लागै सोई। थिर होइ रहै न पावै कोई॥
उमरा मीर रहै तहँ ताई। सबहीं बाँटि अलंगै पाई॥

 

लाग कटक चारिहु दिसि, गढ़हि परा अगिदाहु।
सुरुज गहन भा चाहै, चाँदहिं भा जस राहु॥ ७ ॥

 

अथवा दिवस, सूर भा बासा। परी रैनि, ससि उवा अकासा॥
चाँद छत्र देइ बैठा आई। चहुँ दिसि नखत दीन्ह छिटकाई॥
नखत अकासहि चढ़े दिपाहीं। टुटि टुटि लूक परहिं, न बुझाहीं॥
परहिं सिला जस परै बजागी। पाहन पाहन सौ उठि आगी॥
गोला परहिं, कोल्हु ढरकाहीं। चूर करत चारिउ दिसि जाहीं॥
ओनई घटा बरस झरि लाई। ओला टपकहिं, परहिं बिछाई॥
तुरुक न मुख फेरहिं गढ़ लागे। एक मरै, दूसर होइ आगे॥

 

दिन बड़ाई = दिन में सूर्य के सामने उसकी क्या बड़ाई है? तपे = प्रतापयुक्त थे। जो होइ सरग जूझा = जो स्वर्ग (ऊँचे गढ़) पर हो वह नीचे उतरकर युद्ध नहीं करता। हाथ परै गढ़ = लूट हो लाय गढ़ में (मुहा॰)। भा गढ़पति = किले में हो गया अर्थात् सूर्य के सामने नहीं आया। (७)उदधि समुद्र = पानी का समुद्र। केतेन्ह साजा = न जाने कितनों को (जो नए भरती होते जाते हैं) नए नए सामान देता है। तस राजा = ऐसा बड़ा राजा वह अलाउद्दीन हैं। अलंगै = बाजू, सेना का एक एक पक्ष। अगिदाहु = अग्निदाह। सुरूज गहन राहु = सूर्य (बादशाह) चंद्रमा (राजा) के लिये ग्रहण रूप हुआ चाहता है, वह चंद्रमा (राजा) के लिये राहु रूप हो गया है। (८) भा बासख = अपने डेरे में टिकान हुआ। नखत = राजा के सामंत और सैनिक। लूक = अग्नि के समान बाण। उठ = उठती हैं। कोल्हु = कोल्हू। ढरकाहीं = लुढ़काए जाते हैं।