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राजा बादशाह मेल खंड

सरजै सपथ कीन्ह छल बैनहि मीठै मीठ।
राजा कर मन माना, माना तुरत बसीठ॥ ५ ॥

 

हंस कनक पींजर हुँत आना। औ अमृत नग परस पखाना॥
औ सोनहार सोन के डाँड़ी। सारदूल रूप के काँड़ी॥
सो बसीठ सरजा लेइ आवा। बादसाह कहूँ आनि मेवारा॥
ए जगसूर भूमि उजियारे। बिनती करहिं काग मसि कारे॥
बड़ परताप तोर जग तपा। नवौ खंड तोहि को नहिं छपा॥
कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ। मारसि धूप, जियावसि छाहाँ॥
जो मन सूर चाँद सौं रूसा। गहन गरासा, परा मँजूसा॥

भोर होइ जौ लागै उठहिं रोर कै काग।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग॥६॥

 

करि बिनती अज्ञा अस पाई। "कागहु कै मसि आपुहि लाई॥
पहिलेहि धनुष नवै जब लागै। काग न टिकै, देखि सर भागै॥
अबहू ते सर सौहैं होहीं। देखैं धनुक चलहिं फिर त्योंहीं॥
तिन्ह कागन्ह कै कौन बसीठी। जो मुख फेरी चलहिं देइ पीठी॥
जो सर सौंह होहि संग्रामा। कित बग होहिं सेत वै सामा? ॥
करै न आपन ऊजर केसा। फिरि फिरि कहै परार सँदेसा॥
काग नाग ए दूनौ बाँके। अपने चलत साम वै आँके॥


छल = छल से। बसीठ माना = सुलह का सँदेस मान लिया। (६) सोनहार = समुद्र का पक्षी। डाँड़ी = अड्डा। काँड़ी = पिंजरा (?)। बिनती करहि काग मसि कारे = हे सूर्य! कौए विनती करते हैं कि उनकी कालिमा (दोष, अवगुण) दूर कर दे अर्थात् राजा के दोष क्षमा कर। कोह = क्रोध। छोह = दया, अनुग्रह। धूप = धूप से। छाहाँ = छाँह में, अपनी छाया में। परा मंजूसा = झावे में पड़ गया अर्थात् घिर गया। कागहि केर अभाग = कौए का ही भाग्य है कि उसकी कालिमा न छूटी। (७) कागहु कै मसि...लाई = कौवे की स्याही तुम्हीं ने लगा ली है (छल करके',वे कौए नहीं हैं क्योंकि,..। पहिलेहि...भागै = जो कौवा होता है वह ज्योंहीं धनुष खींचा जाता है, भाग जाता है। अबहूँ...होहि= वे तो अब भी यदि उनके सामने बाण किया जाय तो तुरत लड़ने के लिये फिर पड़ेंगे। धनुक (क) युद्ध के लिये चढ़ी कमान, (ख) टेढ़पन, कुटिलता। सर = (क) शर, तीर; (ख)ताल, सरोवर। जो सर...सामा = जो लाड़ई में तीर के सामने आते हैं वे श्वेत बगले काले (कौए) कैसे हो सकते हैं? करै न आपन...सँदेसा = तू अपने को शुद्ध और उज्वल नहीं करता; केवल कौवों की तरह इधर का उधर सँदेसा कहता है (कवि लोग नायिकाओं का कौए से सँदेसा कहना वर्णन करते हैं) अपने चलत...आँँके = वे एक बात पर दृढ़ रहते हैं और सदा वहीं = कालिमा ही प्रकट करते हैं, पर तू अपने को और का और प्रकट करके छल करता है।