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चित्तौरगढ़ वर्णन खंड

पाँसासारि कुँवर सब खेलहि, गीतन्ह स्त्रवन ओनाहिं।
चैन चाव तस देखा, जनु गढ़ छेंका नाहि ॥ ३ ॥

 

देखत साह कीन्ह तहँ फेरा। जहँ मंदिर पदमावति केरा॥
कनक सँवारि नगन्ह सब जरा। गगन चंद जनु नखतन्ह भरा॥
सरवर चहुँ दिसि पुरइन फूली। देखत वारि रहा मन भूली॥
कुँवरि सहसदस बार अगोरे। दुहुँ दिसि पवँरि ठाढ़ि कर जोरे॥
सारदूल दुहुँ दिसि गढ़ि काढ़े। गलगाजहिं जानहुँ ते ठाढ़े॥
जावत कहिए चित्र कटाऊ। तावत पँवरिन्ह बने जड़ाऊ॥

साह मँदिर अस देखा, जनु कैलास अनूप।
जाकर अस धौराहर, सो रानी केहि रूप॥ ४ ॥

 

नाँघत पँवर गए खँड साता। सतएँ भूमि बिछावन राता॥
आँगन साह ठाढ़ भा आई। मँदिर छाह अति सीतल पाई॥
चहूँ पास फुलवारी बारी। माँझ सिंहासन धरा सँवारी॥
जनु बसंत फूला सब सोने। फल औ फूल बिगति अति लोने॥
जहाँ जो ठाँव दिस्टि महँ आवा। दरपन भाव दरस देखरावा॥
तहाँ पाट राखा सुलतानी। बैठ साह, मन जहाँ सो रानी॥
कवँल सुभाय सूर सौं हँसा। सूर क मन चाँदहि पहँ बसा॥

सो पै जाने नयन रस, हिरदय प्रेम अँकूर।
चंद जो बसै चकोर चित, नयनहि आव न सूर ॥ ५ ॥

 

रानी धौराहर उपराहीं। करै दिस्टि नहिं तहाँ तराहीं॥
सखी सरेखीं साथ बईठी। तपै सूर, ससि आव न दीठी॥
राजा सेव करै कर जोरे। आजु साह घर आवा मोरे॥
नट नाटक, पातुरि औ बाजा। आइ अखाड़ माँह सब साजा॥
पेम क लुबुध बहिर औ अंधा। नाच कूद जानहुँ सब धंधा॥
जानहुँ काठ नचावै कोई। जो नाचत सो प्रगट न होई॥
परगट कह राजा सौं बाता। गुपुत प्रेम पदमावति राता॥


पाँसासारि = चोपड़। ओनाहिं = झुके या लगे हैं। (४) पुरइन = (सं० पुटकिनी) कमल। अगोरे = रखवाली या सेवा में खड़ी हैं। सारदूल = सिंह। गलगाजहिं = गरजते हैं। कटाऊ = कटाव, बेलबूटे। (५) राता = लाल। दरपन भाव...देखराबा = दर्पण के समान ऐसा साफ झकाझक है कि प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। अँकूर = अंकुर। नयनहिं न नाव नजर में नहीं जँचता है। (६) उपराही = ऊपर। सूर = सूर्य के समान बादशाह। ससि = चंद्रमा के समान राजा। ससि...दीठि = सूर्य के सामने चंद्रमा (राजा) की ओर नजर नहीं जाती है। अखाड़ = अखाड़ा, रंगभूमि; जैसे--इद्र का अखाड़ा। जानहुँ सब धंधा = मानो नाच कूद तो संसार का काम ही है यह समझकर उस ओर ध्यान नहीं देता है। कह = कहता है।