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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४०३

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चित्तौरगढ़ वर्णन खंड

भइ जेवनार फिरा खँड़वानी। फिरा करगजा कुहकुह पानी॥
नग अमोल जो थारहि भरे। राजै सेव आनि कै धरे॥
बिनती कीन्ह घालि गिउ पागा। ए जगसूर! सीउ मोहिं लागा॥
ऐगुन भरा काँप यह जीऊ। जहाँ भानु तहँ रहै न सीऊ॥
चारिउ खंड भानु अस तपा। जेहि के दिस्टि रैनि मसि छपा॥
औ भानु हि अस निरमल कला। दरस जो पावे सो निरमला ॥
कवल भानुहिं देखे पै हँसा। औ भा तेहु चाहि परगसा॥

रतन साम हौं रैनि मसि, ए रबि! तिमिर सँघार।
करु सो कृपा दिस्टि अब, दिवस देहि उजियार॥ १४ ॥

 

सुनि बिनती बिहँसा सुलतानू। सहसौ करा दिपा जस भानू॥
ए राजा! तुइ साँच जुड़ावा। भइ सुदिस्टि अब, सीउ छुड़ावा॥
भानु क सेवा जो कर जीऊ। तेहि मसि कहाँ, कहाँ तेहि सीऊ॥
खाहु देस आपन करि सेवा। और देउँ माँडौ तोहि, देवा!॥
लीक पखान पुरुष कर बोला। धुव सुमेरु ऊपर नहिं डोला॥
फेरि पसार दीन्ह नग सूरू। लाभ देखाइ लीन्ह चह मूरू॥
हँसि हँसि बोलै, टेकै काँधा। प्रीति भुलाइ चहै छल बाँधा॥

माया बोल बहुत कै साह पान हँसि दीन्ह।
पहिले रतन हाथ कै, चहै पदारथ लीन्ह॥ १५ ॥

 

माया मोह बिबस भा राजा। साह खेल सतरँज कर साजा॥
राजा! है जौ लगि सिर घामू। हम तुम घरिक करहिं बिसरामू॥
दरपन साह भीति तह लावा। देखौ जबहिं झरोखे आवा॥
खेलहिं दुऔ साह औ राजा। साह क रुख दरपन रह साजा॥
प्रेम क लुबुध पियादे पाऊँ। ताकै सौंह चले कर ठाऊं॥


(१४) सेव = सेवा में। घालि गिड पागा = गले में पगड़ी डालकर (अधीनतासूचक)। सीऊ = शीत। रैनि मसि = रात की कालिमा। तेहु चाहि = उससे भी बढ़कर। सँघार = नष्ट कर। (१५) दिपा = चमका। मसि = कालिमा। खाहु = भोग करो। माँडौं = माडौगढ़। देवा = देव, राजा। लीक पखान = पत्थर की लीक सा (न मिटनेवाला)। ध्रुव = ध्रुव। पसाउ = प्रसाद, भेंट। मूरू = मूलधन। प्रीति = प्रीति से। छल = छल से। रतन = राजा रत्नसेन। पदारथ = पद्मिनी। (१६) घरिक = एक घड़ी, थोड़ी देर। भीति = दीवार में। लावा = लगाया। रह साजा = लगा रहता है। पियादे पाऊँ = पैदल। पियादे = शतरंज की एक गोटी। फरजी = शतरंज का वह मोहरा जो सीधा और टेढ़ा दोनों चलता है। फरजीबाँद = शतरंज के वह घात जिसमें फरजी किसी प्यादे के जोर पर बादशाह को ऐसी शह देता है जिससे विपक्षी की हार होती है। शह = बादशाह को रोकनेवाला घात। रथ = शतरंज का वह मोहरा जिसे आज कल ऊँट कहते हैं (जब चतुरंग का पुराना खेल हिंदुस्तान से