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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४०४

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पदमावत

घोड़ा देइ फरजीबँद लावा। जेहि मोहरा रुख चहै सो पावा॥
राजा पील देइ शह माँगा। शह देइ चाह मरै रथ खाँगा॥

पीलहि पील देखावा भए दुऔ चौदात।
राजा चहै बुर्द भा, शाह चहै शह मात ॥ १६ ॥

 

सूर देख जौ तरई दासी। जहँ ससि तहाँ जाइ परगासी॥
सुना जो हम दिल्ली सुलतानू। देखा आजु तपै जस भानू॥
ऊँच छत्र जाकर जग माहाँ। जग जो छाँह सब ओहि कै छाहाँ॥
बैठि सिंघासन गरबहिं गूँजा। एक छत्र चारिउ खँड भूँजा॥
निरखि न जाइ सौंह ओहि पाँहीं। सबै नवहि करि दिस्टि तराहीं॥
मनि माथे, ओहि रूप न दूजा। सब रुपवंत करहिं ओहि पूजा॥
हम अस कसा कसौटी आरस। तहूँ देखु कस कंचन, पारस॥

बादसाह दिल्ली कर, कित चितउर महँ आव।
देखि लेहु पदमावति! जेहि न रहै पछिताव॥ १७ ॥

 

बिगसै कुमुद कहे ससि ठाऊँ। बिगसै कवँल सुने रवि नाऊँ॥
भइ निसि, ससि चौराहर चढ़ी। सोरह कला जैस विधि गढ़ी॥
बिहँसि भरोखे आइ सरेखी। निरखि साह दरपन महँ देखी॥
होतहि दरस परस भा लोना। धरती सरग भएउ सब सोना॥
रुख मँगन रुख ता सहुँ भएउ। भा शह मात, खेल मिट गएउ॥
राजा भेद न जानै झाँपा। भा बिसँभार, पवन बिनु काँपा॥
राघव कहा कि लागि सँवारी। लेइ पौंढ़ावहिं सेज सँवारी॥


फारस अरब की ओर गया तब वहाँ 'रथ' के स्थान पर 'ऊँट' हो गया)। बुर्द = खेल में वह अवस्था जिसमें किसी पक्ष में सब मोहरे मारे जाते हैं, केवल बादशाह बच रहता है, वह आधी हार मानी जाती है। शह = मात पूरी हार। (१७) सूर देख तरई दासी = दासी रूप नक्षत्रों ने जब सूर्य रूप बादशाह को देखा। जहँ ससि परगासी = जहाँ चंद्र रूप पदमावती थी वहाँ जाकर कहा। परगासी = प्रगट किया, कहा। भूजा = भोग करता है। आरस = आदर्श, दर्पण। कसा कसौटी आरस = दर्पण में देखकर परीक्षा की। कित आव = फिर कहाँ आता है, अर्थात् न आएगा। (१८) कहे ससि ठाउँ = इस जगह चद्रमा है, यह कहने से। सुने = सुनने से। परस भा लोना = पारस या स्पर्शमणि का स्पर्ण सा हो गया। रुख = शतरंज का रुख। रुख = सामना। भा शाह मात = (क) शतरंज में पूरी हार हुई; (ख) बादशाह बेसुध या मतवाला हो गया। झाँपा = छिपा, गुप्त। भा विसँभार = बादशाह बेसुध हो गया। लागि गोपारी = सुपारी के टुकडे निगलने में छाती में रूक जाने से कभी कभी एकबारगी पीड़ा होने लगती है जिससे आदमी बेचैन हो जाता है; इसी को सुपारी लगना कहते हैं। देखै = जो उठकर देखता है तो।