पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३२
पदमावत

जो विधि लिखा आन नहिं होई। कित धावै, कित रोवै कोई॥
कित कोउ हींछ करै पूजा। जो विधि लिखा होई नहिं दूजा॥
जेतिक कुमुदिनि बैन करेई। तस पदमावति स्त्रवन न देई॥

सेंदुर चीर मैल तस, सूखि रही जस फूल।
जेहि सिंगार पिय तजिगा, जनम न पहिरै भूल ॥ ६ ॥

 

तब पकवान उघारा दूती। पदमावति नहिं छुवै अछूती॥
मोहि अपने पिय केर खभारू। पान फूल कस होई अहारू?॥
मोकहँ फूल भए सब काँटै। बाँटि देहु जौ चाहहु बाँटे॥
रतन छुआ जिन्ह हाथन्ह सेंती। और न छुवैं सो हाथ सँकेती॥
ओहि के रँग भा हाथ मँजोठी। मुकुता लेउँ तौ घुँघची दीठी॥
नैन करसुहें, रातो काया। सोती होहिं घुँघची जेहि छाया॥
अस कै ओछ नैन हत्यारे। देखत गा पिउ, गहै न पारे॥

का तोर छुवौं पकवान, गुड़ करुवा, घिउ रूख।
जेहि मिलि होत सवाद रस, लेई सो गएउ पिउ भूख ॥ ७ ॥

 

कुमुदिनि रही कँवल के पासा। बैरी सूर, चाँद कै आसा॥
दिन कुँभिलानि रही भइ चूरू। बिगसि रैनि बातन्ह कर भूरू॥
कस तुइ, बारि! रहसि कुँभलानी। सूखि बेलि जस पाव न पानी॥
अबही कँवल करी तुइ बारी। कोवँरि बैस, उठत पौनारी॥
बेनी तोरि मैलि औ रूखी। सरवर माह रहसि कस सूखी?॥
पान बेलि विधि कया जमाई। सींचत रहै तबहि पलुहाई॥
करु सिंगार सुख फूल तमोरा। बैठु सिंघासन, झूलु, हिंडोरा॥

हार चीर निति पहिरहु, सिर कर करहु सँभार।
भोग मानि लेहु दिन दस, जोबन जात न बार ॥ ८ ॥

 

हींछ = इच्छा। बैन करेई = बकवाद करती है। भूल = भूल, भूलकर भी। (७) उघारा = खोला। खभारू = खभार, शोक। हाथन्ह सेंती = हाथों से। हाँथ सँकेती = हाथ से बटोरकर। मुकता लेऊँ..दीठी = हाथ में मोती लेते ही हाथों की ललाई से (जो रत्नसेनरूपी रन या माणिक्य के स्पर्श के प्रभाव से है) वह लाल हो जाता है; फिर जब उसकी ओर देखती हूँ तब पूतली की छाया पड़ने से उसके ऊपर काला दाग भी दिखाई देने लगता है, इस प्रकार वह मोती घुँघची दिखाई पड़ती है अर्थात् उसका कुछ भी मूल्य मुझे नहीं मालूम होता। राती = लाल। छाया = लाल और काली छाया से। (८) कँवल = अर्थात् पदमावति। बैरी सूर...आसा = कुमुदिनी का बैरी सूर्य है और वह कुमुदिनी चंद्र की आशा में है अर्थात् उस दूती का रत्नसेन शत्रु है और वह दूती पद्मावती को प्राप्त करने की आशा में है। बिगसि रैनि...भूरू = रत्नसेन के अभावरूपी रात में विकसित या प्रसन्न होकर बातों से भुलाया चाहती है। रहसि = तू रहती है। कोवँरि = कोमल। पौनारि = मृणाल। बार = देर।