पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४५३

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आखरावट २७१ सोड चित्त स मनुवाँ जाएँ। मोहि मिलि कौतुक खले लागे । देखि पिंड कर ह बॉलो बोलें। अब मोहि बिनु कस नैन न खोले ? ॥ परमहंस तेहि ऊपर देई । सोsहं सोंs साँसे लेई ॥ तन सरायमन जानहु दीया। वासु तेलदम वाती कोआ t दीपक महें बिधि जोति सभानी ापुहि बई बाति निरबानी ॥ निघटे तेल भूरि भइ बाती। गा दीपक बु,ि अंधियरि राती। दोहा गा सो प्रान परेवा, के पीजर तन छ । मुए पंड कस फूले ? चेला गुरु सन पूछ । बि गरि गए सब नावें, हाथ पाँव मुंह सीस धर । तोर नाव केहि ठाँव, मृहमद सोइ बिचारिए 1१३। जा जानहु प्रस तन महें भद्र। जैसे रहै अंड महै मेद्र ॥ बिरिछ एक लागीं दुई डारा। एकहि तें नाना प्रकारा मातु के रकत पिता के बिंदु । उपने दुवाँ तुरुक ऑौ हिदू ।। रकत तें तन भए चौरंगा। बिंदु तें जिज पाँचवें संगा जस ए चारिउ धरति बिलाहीं । तस वे पाँच सरगति जाहीं । ओोई सों = बहाँ स्वर्ग से । मोठई माँ गोपू = स्वर्ग से चित्त् तत्व के बिंदु अर्थात् जीवात्मा को लाकर यहाँ छिपा रखा है । बोलै = चित्त जीव ताना या मारता में बह है । परमहंस = शुद्ध बह या श्रात्मा। = सो = ऊपर देई ऊपर से। (ह) हूँ । दम = साँस का आना जाना । विधि जोति = ईश्वर की ज्योति । बाति निरबानी निर्वाण या मोक्ष का मार्ग दिखलानेवाली बत्ती । निघट = घट जाने पर, चक जाने पर । नाव = नाम रूप । विगर गए 'घर = हाथ, पाँच इत्यादि जो अलग अलग नाम थे वे तो न रह गए। तोर नाच-विचरिए जब रूपात्मक कोई वस्तु नहीं रह गई तब तेरी वास्तव सा कहाँ है नोर , ”) जानह अस क्या हैइसका विचार कर । (१४भेस = शरीर के भीतर इसी प्रकार अनेक रूपात्मक सष्टि ह । मेद्र -- मेद, कलल जिससे अनेक अंग आादि बनते हैं । बिरिल एकांडरा = एक ही वह के दो पक्ष हैं--पुरुष और प्रकृति अथवा पितृपक्ष औौर मातृपक्ष ; सृष्टि के अारंभ में आकाश या स्वर्ग पितृपक्ष का पौर पृथ्व मापक्ष का अभिव्यक्त रूप हुआा । मातु के रकत बिंदु = माता के रेंज से नौर पिता के पुत्र बिंदु से सब मनुष्य उत्पन्न हुए (आात्मतत्व के जीवात्मानों के रूप में बिदुओं का आाना समुद्र स्वर्ग से पहले कह ) चौरंगा चार हढ । पाए हैं। = तत्वों से युक्त । = से जिउ पाचों संगा = ज्ञानेंद्रियों के नहित जीवात्मा (इंद्रियों से इंद्रियों के स्थूल अधिष्ठान न समझना चाहिए बल्कि संवेदन वृत्ति) । जस ए चारिज -जाहीं = मरने पर जैसे पृथ्वी, जलतेजवाय, प्रकृति के ये चारों तत्व पृथ्वी में मिल जाते हैं वैसे ही ज्ञान वृत्तियों के सहित जीवात्मा स्वर्ग में फिर जा मिलता है । अपनो २८