पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४५६

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२७४
अखरावट

२७४ अखरावट सब जगत ठा ठाकर बड़ श्राप गोसाईं । जेइ सिरजा उग आपनिहि नाई ।। ‘नाप जो । आपनि प्रभुता श्राप साँ कहा ॥ दख चहा दरपन के लेखा। श्रापुहि दरपनग्राहि देखा आाहि बन औौ श्रा पखेरू । आापूहि सजा, अपू अहेरू ॥ आापुहेिं पुहप फूलि बन फूले । ग्राहि भंवर बास रस भूले ॥ चापुहि फल, रखवारा। श्रापुहि सो रस चाखनहारा ॥ ह आापूहि घट घट महें मुख चाहै । ग्राहि यापन रूप सराहै। । दहा आपूहि कागदूअपु मसि, जापुहि लेखनहार अपुहि लिखनी, प्रखर, जापुहि डित नापार ॥ केह नहि लागिहि मथ, जब नब कविलास म्हूँ। चलब झारि दोऊ हाथमुहमद यह जग छोडुि के 1१६। डा डरपह मन सरगहि खोई। जेहि पाटे पष्ठिताव न होई ॥ गरब करेंजो ‘हीं हों' करई । वैरी सोड़ गोस।ई के ग्रहई ॥ जो जानै है मरना। तुहि कहें ‘मोर तोर का करना ? ॥ निहचय नैन, बैनसरवन बिवि दीन्हा । हाथ पाँव स्व सेवक कीन्हा । जहिर राज भोग सुख करई। लेइ साद जगत जस चहई ।। सो सब विहि, मैं जो दीन्हा। मैं मोहि कर कस नगुन कीन्हा । कौन उतर, का करव बहाना। बोझं बटुर, लदें कित धाना ? ॥ दाह के किट ले, न सकब तब, नितिहि अवधिनिराई ! सो दिन आड़ जो , पुनि कियु कोन्ह न जाई ॥ (१८) सिरजा = उत्पन्न किया। पनिहि नाई के प्रथत् ियह ईश्वर का ही प्रतिभास । जगत है । आपुहि श्रा जो देखे चहा = अपने ग्रापको जब देखना चाहा, अथत् िअपनी शक्ति के विस्तार को लीला जब देखनी चाही (शावित था प्रकृ ति ब्रह्म हैं। को है, उससे १थ यू उसको कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं। जैसा मानते ) कि सांस्यवाल हैं। सने दरपन के लेखा = इस जगत् को जगत क दर्पण समझो जिसमें ब्रह्म के स्वरूप का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है (प्रतिबिंब वाद। मुख वा मुख देता है ) । (१९) सरगहि खोई - ग्रादम अपराध के कारण से निकाले गए मन हो स्वर्ग इससे में डर।। = जगत् । पूछिदि पड़ेगा । मै जो दोन्हा - मैन जो हाथ, पैर नादि तुझे दिए थे । अवगुन कीन्हा जगत में: "टपयोग किया, उसे भु काम में लाया। लव = काटे । धाना = धान । : के किछू लेइ = कुछ कर ले । न सकब तब = फिर पीछे मु छ नहीं कर सके गा।