पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३९)

साजन लेइ पठावा, आयसु जाइ न मेट।
तन, मन, जीवन साजि कै देइ चली लेइ भेंट॥

इस दोहे में तन, मन और यौवन तीनों का अलग अलग उल्लेख बहुत ही सुंदर है। मन का सजाना क्या है? समागम की उत्कंठा या अभिलाष। बिना इस मन की तैयारी के तन की सब तैयारी व्यर्थ हो जाती है। देखिए, प्रिय के पास गमन करते समय कविपरंपरा के अनुसार शेष सृष्टि से चुनकर सौंदर्य का कैसा संचार कैसी सीधी सादी भाषा में किया गया है—

पदमिनि गवन हंस गए दूरी। कुंजर लाज मेल सिर धूरी॥
बदन देख घटि चंद समाना। दसन देखि कै बीजु लजाना॥
खंजन छपे देखि कै नैना। कोकिल छपी सुनत मधु बैना॥
पहुँचहि छपी कँवल पौनारी। जाँघ छपा कदली होइ बारी॥

संयोगवर्णन में जायसी पहले तो सहसा सौंदर्य के साक्षात्कार से हृदय के उस आनंदसंमोह का वर्णन करते हैं जो मूर्च्छा की दशा तक पहुँचा हुआ जान पड़ता है। फिर राजा अपने दुःख की कहानी और प्रेममार्ग में अपने ऊपर पड़े हुए संकटों का वर्णन करके प्रेममार्ग की उस सामान्य प्रवृत्ति का परिचय देता है जिसके अनुसार प्रेमी अपने प्रियतम के हृदय में अपने ऊपर दया तथा करुणा का भाव जाग्रत करने का बराबर प्रयत्न किया करता है। इसी प्रवृत्ति की उत्कर्षव्यंजना के लिये फारसी या उर्दू शायरी में मुर्दे अपना हाल सुनाया करते हैं। सबसे बड़ा दुःख होने के कारण 'मरणदशा' के प्रति सबसे अधिक दया या करुणा का उद्रेक स्वभावसिद्ध है। शत्रु तक का मरण सुनकर सहानुभूति का एक आध शब्द मुँह से निकल ही जाता है। प्रिय के मुख से सहानुभूति के वचन का मूल्य प्रेमियों के निकट बहुत अधिक होता है, 'बेचारा बहुत अच्छा था', प्रिय के मुख से इस प्रकार के शब्दों की संभावना ही पर वे अपने मर जाने की कल्पना बड़े आनंद से किया करते हैं। जो हमें अच्छा लगता है उसे हमारी भी कोई बात अच्छी लगे, यह अभिलाषा प्रेम का एक विशेष लक्षण है। इस अभिलाषपूर्ति की आशा प्रिय के हृदय को दयार्द्र करने में सबसे अधिक दिखाई पड़ती है, इसी से प्रेमी अपने दुःख और कष्ट की बात बड़े तूल के साथ प्रिय को सुनाया करते हैं।

नायक नायिका के बीच कुछ वाक्चातुर्य और परिहास भी भारतीय प्रेम प्रवृत्ति का एक मनोहर अंग है; अतः उसका विधान यहाँ के कवियों की शृंगार पद्धति में चला आ रहा है। फारसी, अँगरेजी आदि के साहित्य में हम इसका विधान नहीं पाते। पर नए प्रेम से प्रभावित प्रत्येक भारतीय हृदय इस प्रवृत्ति का अनुभव करता है। देश और काल के भेद से हृदय के स्वरूप में भी भेद होता है। भारतीय प्रकृति के अनुसार संयोग पक्ष की नाना वृत्तियों का भी कुछ विधान हो जाने से जायसी का प्रेम आनंदी जीवों द्वारा बिलकुल 'मुहर्रमी' कहे जाने से बाल बाल बच गया है।

पीछे तो उर्दू वालों में भी 'खूबाँ से छेड़छाड़' की रस्म चल पड़ी।

राजा की सारी कहानी सुनकर पद्‍मावती कहती है कि 'तू जोगी और मैं रानी, तेरा मेरा कैसा साथ?'