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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/६०

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(४०)

हौं रानी, तुम जोगि भिखारी। जोगिहि भोगिहि कौनि चिन्हारी॥
जोगी सबै छंद अस खेला। तू भिखारि तिन्ह माँह अकेला॥
एही भाँति सिष्टि सब छरी। एही भेख रावन सिय हरी॥

संयोग शृंगार में कविपरंपरा 'हावों' का विधान करती आई है। अतः यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि जायसी ने 'हावों' का सन्निवेश एक प्रकार से नहीं के बराबर किया है। केवल इसी प्रसंग में 'विव्वोक हाव' की कुछ झलक मिलती है, जैसे—

ओहट होसि, जोगि! तोरि चेरी। आवै बास कुरकुटा केरी।
जोगि तोरि तपसी कै काया। लागि चहै मोरे अँग छाया॥

'हावों' की सम्यक् योजना न होने से जायसी के संयोग पक्ष में वैसी सजीवता नहीं दिखाई देती।

राजा इस प्रेमगर्भ फटकार पर भी अपने कष्टपूर्ण प्रयत्‍नों और प्रेम की गंभीरता की बात कहता ही चला जाता है। इसपर पद्‍मावती सच्चे प्रेम की व्याख्या करने लगती है— कापर रँगे रंग नहिँ होई। उपजै औटि रंग भल सोई॥ जौ मजीठ औटै बहु आँचा। सो रँग जनम न डोलै राँचा॥ जरि परास होइ कोइल भेसू। तब फूलै राता होइ टेसू॥

पर सच पूछिए तो यह गंभीर व्याख्या अवसर के उपयुक्त नहीं है। इस प्रकार का निरूपण प्रशांत मानव में ही ठीक है, मोदतरंगाकुल मानस में नहीं। पर कवि अपनी चिंतनशील प्रकृति के अनुसार अवसर अनवसर का विचार न करके ऐसी बातों को बीच में बराबर घुसाया करता है।

पहले पद्मावती में प्रियसमागम का भय दिखाकर कवि ने उसे नवोढ़ा का रूप दिया। अतः उसके मुँह से इस प्रकार का प्रौढ़ परिहास या प्रगल्भता नायिका-भेद के उस्तादों को खटकेगी। समाधान केवल यही हो सकता है कि सूए ने पद्मावती को बहुत पहले से प्रेममार्ग में दीक्षित कर रखा था। राजा रत्नसेन के सिंहल आने पर सूआ संदेसों के द्वारा पद्मावती को प्रेम में पक्की करता रहा। अतः इस प्रकार के परिपुष्ट वचन अनुपयुक्त नहीं।

संभोग शृंगार की रीति के अनुसार जायसी ने अभिसार का पूरा वर्णन किया है। पद्‍मावती के समागम की कुछ पंक्तियाँ श्लील भी हो गई हैं; पर सर्वत्र जायसी ने प्रेम का भावात्मक रूप ही प्रधान रखा है। शारीरिक भोग विलास का वर्णन कवि ने यहाँ कुछ ब्योरे के साथ किया है, पर इस विलासिता के बीच बीच में भी प्रेम का भावात्मक स्वरूप प्रस्फुटित दिखाई पड़ता है। राजा जिससे मतवाला हो रहा है वह प्रेम की सुरा है जिसका जिक्र सूफी शायरों ने बहुत ज्यादा किया है—

सुनु धनि! प्रेम सुरा के पिए। मरन जियन डर रहै न हिए॥
जेहि मद तेहि कहाँ संसारा। की सो घूमि रह, की मतवारा॥