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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/६१

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( ४१ )

जाकहँ होई बार एक लाहा। रहै न ओहि बिनु, ओही चाहा॥
अरथ दरब सो देइ बहाई। की सब जाहू, न जाहु पियाई॥

पद्‍मावती पासा खेलने का प्रस्ताव करती है। नवदंपति का पासा खेलना बहुत पुरानी रीति है। अब भी बहुत जगह विवाह के समय वर कन्या के पासा खेलने की नकल चली आती है। पर इस प्रसंग में भी कवि ने श्लेष और अन्योक्ति आदि द्वारा उभय पक्ष का वाक्‌चातुर्य दिखाने का आयोजन बाँधा है जिससे पाठक का कुछ भी मनोरंजन नहीं होता। जैसा कि आगे चलकर दिखाया जायगा। जायसी की इस प्रवृत्ति के कारण प्रबंध के रसपूर्ण प्रवाह में बहुत जगह बाधा पड़ी है।

बिहँसी धनि सुनिकै सब बाता। निश्‍चय तू मोरे रँग राता॥
जब हीरामन भयउ सँदेसो। तुम्ह हुँत मंडप गइउँ, परदेसी॥
तोर रूप तस देखिउँ लोना। ज जोगी तू मेलेसि टोना॥
भुगुति देइ कहँ मैं तोहि दीठा। कँवल नयन होइ भँवर बईठा॥
नैन पुहुप, तू अलि भा सोभी। रहा बेधि अस, उड़ा न लोभी॥
कौन मोहिनी दहुँ हुति तोही। जो तोहि विथा सो उपनी मोही॥
तोरे प्रेम प्रेम मोहि भएऊ। राता हेम अगिनि जौं तएऊ॥

प्रेम की पूर्वापर (युगपत् नहीं) स्थिति में एक की व्यथा से दूसरे की व्यथा या करुणा उत्पन्न हुई कि एक के प्रेमप्रवाह से दूसरे में प्रेम की नींव पड़ी समझनी चाहिए। रत्‍नसेन और पद्मावती का प्रेम पूर्वापर है। पद्मावती के अलौकिक रूपसौंदर्य को सुनकर पहले राजा रत्‍नसेन के हृदय में प्रेमव्यथा उत्पन्न होती है, पीछे पद्मावती के हृदय में उस व्यथा के प्रति सहानुभूति—

सुनि कै धनि, 'जारी अस काया'। तन भा मयन, हिये भइ मया॥

यही 'मया' या सहानुभूति प्रेम की पवित्र जननी हो जाती है। सहसा साक्षात्कार के द्वारा प्रेम के युगपत् आविर्भाव में उक्त पूर्वापर क्रम नहीं होता इसलिए उसमें प्रेमी और प्रिय का भेद नहीं होता। उसमें दोनों एक दूसरे के प्रेमी और एक दूसरे को प्रिय साथ साथ होते हैं। उसमें यार को संगदिली या बेफवाई की शिकायत—निष्ठुरता के उपालंभ—की जगह पहले तो नहीं होती, आगे चलकर हो जाय तो हो जाय। तुलसीदास द्वारा वर्णित जनकपुर के बगीचे में उत्पन्न सीता और राम का युगपत् प्रेम बराबर सम रहा। पर सूरदास द्वारा वर्णित गोपी कृष्ण का प्रेम आगे चलकर सम से विषम हो गया। इसीलिये अयोध्या से निर्वासित सीता राम की बेफवाई की कुछ भी शिकायत नहीं करतीं, पर गोपियाँ मारे शिकायतों के उद्धव के कान बहरे कर देती हैं। रत्नसेन औौर पद्मावती के प्रेम में आरंभ में विषमता है और गोपी कृष्ण के प्रेम में अंत में। दोनों की विषमता की स्थिति में यही अंतर है। गोपी-कृष्ण-प्रेम समता से विषमता की ओर प्रवृत्त हुआ है और रत्नसेन पद्मावती का प्रेम विषमता से समता की ओर। इस समता की प्राप्ति की व्यंजना पद्मावती कैसे भोले भाले शब्दों में अपनी सखियों से करती है—

आजु मरम मैं जानिउँ सोई। जस पियार पिउ और न कोई॥
हिये छाहँ उपना औ सीऊ। पिउ न रिसाउ लेउ बरू जीऊ॥