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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/६२

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करि सिँगार तापहँ का जाऊँ। ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ॥
जौ जिउ महँ तौ उहै पियारा। तन मन सौं नहि होइ निनारा॥
नैन माँह है समाना। देखौं तहाँ नाहिं कोउ आना॥

अब यहाँ प्रश्‍न उठता है कि जायसी ने विषम प्रेम से क्यों आरंभ किया, आरंभ ही से सम प्रेम क्यों नहीं लिया। इसका उत्तर यह है कि जायसी को इस प्रेम को लेकर भगवत्पक्ष में भी घटाना था। ईश्वर के प्रति प्रेम का उदय पहले भक्त के हृदय में होता है। ज्यों ज्यों यह प्रेम बढ़ता जाता है, त्यों त्यों भगवान् की कृपादृष्टि भी होती जाती है। यहाँ तक कि पूर्ण प्रेमदशा को प्राप्त भक्त भगवान् का भी प्रिय हो जाता है। प्रेमी होकर प्रिय होने की यह पद्धति भक्तों की है। भक्ति की साधना का क्रम यही है कि पहले भगवान् हमें प्रिय लगें, पीछे अपने प्रेम के प्रभाव से हम भी भगवान् को प्रिय लगने लगेंगे।


ईश्‍वरोन्मुख प्रेम

पहले कहा जा चुका है कि जायसी का झुकाव सूफी मत की ओर था जिसमें जीवात्मा और परमात्मा में पारमार्थिक भेद न माना जाने पर भी साधकों के व्यवहार में ईश्वर की भावना प्रियतम के रूप में की जाती है। इन्होंने ग्रंथ के अंत में सारी कहानीं को अन्योक्ति कह दिया है और बीच बीच में भी उनका प्रेमवर्णन लौकिक पक्ष से अलौकिक पक्ष की ओर संकेत करता जान पड़ता है। इसी विशेषता के कारण कहीं कहीं इनके प्रेम की गंभीरता और व्यापकता अनंतता की ओर अग्रसर दिखाई पड़ती है। 'रति भाव' का वर्णन हिंदी के बहुत से कवियों ने किया है—कुछ लोगों का तो कहना है कि इसके अतिरिक्त और हमने किया ही क्या है—पर एक प्रबंध के भीतर शुद्ध भाव के स्वरूप का ऐसा उत्कर्ष जो पार्थिव प्रतिबंधों से परे होकर आध्यात्मिक क्षेत्र में जाता दिखाई पड़े, जायसी का मुख्य लक्ष्य है। क्या संयोग, क्या वियोग, दोनों में कवि प्रेम के उस आध्यात्मिक स्वरूप का आभास देने लगता है, जगत् के समस्त व्यापार जिसकी छाया से प्रतीत होते हैं। वियोग पक्ष में जब कवि लीन होता है तब सूर्य, चंद्र और नक्षत्र सब उसी परम विरह में जलते और चक्कर लगाते दिखाई देते हैं, प्राणियों का लौकिक वियोग जिसका आभास मात्र है—

विरह के आगि सूर जरि काँपा। रातिउ दिवस जरै ओहि तापा॥

यद्यपि इस प्रकार के विरहवर्णन की ओर सगुण धारा के भक्तों की प्रवृत्ति नहीं रही है, पर तुलसी की 'विनयपत्रिका' में एक जगह ऐसे विश्‍वव्यापी विरह की भावना पाई जाती है—

बिछुरे रबि ससि, मन! नैनन तें पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत स्रमित निसि दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बड़ेरो॥
जद्यपि अति पुनीत सुर सरिता, तिहुँ पर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित बहिबो ताहू केरो॥