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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/६३

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इसी शुद्ध भावक्षेत्र में अग्‍नि, पवन इत्यादि सब उस प्रिय (ईश्‍वर) के पास तक पहुँचने में व्यस्त दिखाई पड़ते हैं—सारी सृष्टि उसी 'परम भाव' में लीन होने को बढ़ती जान पड़ती है। परम साधना पूरी हुए बिना कोई यों ही इच्छा मात्र करके नहीं पहुँच सकता है—

धाइ जो बाजा कै मन साधा। मारा चक्र, भएउ दुइ आधा॥
पवन जाइ तहँ पहुँचै चहा। मारा तैस, लोटि भुइँ रहा॥
अगिनि उठी, जरि उठी निआना। धुआँ उठा, उठि बीच बिलाना॥
पानि उठा, उठि जाइ न छूआ। बहुरा रोइ आई मुँह चूआ॥

लौकिक सौंदर्य का वर्णन करते करते कवि की दृष्टि किस प्रकार उस चरम सौंदर्य की ओर जा पड़ती है, यह 'रूप-सौंदर्य-वर्णन' के अंतर्गत देखिए। उस चरम सौंदर्य की कुछ झलक मानों सृष्टि के वृक्ष, वल्ली, पशु पक्षी, पृथ्वी, आकाश सबको मिली हुई है, सबके हृदय में मानों उसकी दृष्टिकोर गड़ी हुई है, सब उसके विरह में लीन हैं—

उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाँहि न गने। वै सब बान ओहि अ हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहिं सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढ़े। सूतहिं सूत बेध अस गाढ़े॥

बरुनि बान अस ओपहँ बेधे रन, वन ढाँख।
सौजहि तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

सृष्टि के नाना पदार्थ रूप, रस, गंध आदि का जो विकास करते दिखाई पड़ते हैं—सौंदर्य और माधुर्य धारण करते दिखाई पड़ते हैं—वह मानों उस अनंत सौंदर्य के समागम के अभिलाष से उसके पास तक पहुँचने की आशा से—

पुहुप सुगंध करहिं एहि आसा। मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा॥

रत्‍नसेन को पद्मावती तक पहुँचानेवाला प्रेमपंथ जीवात्मा को परमात्मा में ले जाकर मिलानेवाले प्रेमपंथ का स्थूल आभास है। प्रेमपथिक रत्‍नसेन में सच्चे साधक भक्त का स्वरूप दिखाया गया है। पद्मिनी ही ईश्वर से मिलानेवाला ज्ञान या बुद्धि है अथवा चैतन्यस्वरूप परमात्मा है, जिसकी प्राप्ति का मार्ग बतलानेवाला सूआ सद्गुरु है। उस मार्ग में अग्रसर होने से रोकनेवाली नागमती संसार का जंजाल है। तनरूपी चित्तौरगढ़ का राजा मन है। राघव चेतन शैतान हैं जो प्रेम का ठीक मार्ग न बताकर इधर उधर भटकाता है। माया में पड़े हुए सुलतान अलाउद्दीन को मायारूप ही समझना चाहिए। इसी प्रकार जायसी ने 'पद्मावत' के अंत में अपने सारे प्रबंध को व्यंग्यगर्भित कह दिया है—

तन चितउर, मन राजा कीन्हा। हिय सिंहल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥
गुरू सुआ जेहि पंथ देखावा। बिन गुरु जगत को निरगुन पावा॥
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोइ न एहि चित बंधा॥
राघव दूत, सोइ सैतानू। माया अलादीन सुलतानू॥