र्जुनीय, शिशुपालवध आदि हैं। 'पद्मावत' को इसी दूसरे प्रकार के प्रबंध के अंतर्गत समझना चाहिए।
कहने की आवश्यकता नहीं कि दृश्य काव्य का स्वरूप भी घटनाप्रधान ही होता है। अतः इस प्रकार के प्रबंध के वस्तूविन्यास की समीक्षा बहुत कूछ दृश्य काव्य के वस्तुविन्यास के समान ही होनी चाहिए। जैसे दृश्य काव्य का वैसे ही प्रत्येक घटनाप्रधान प्रबंध काव्य का एक 'कार्य' होता है जिसके लिये घटनाओं का सारा आयोजन होता है; जैसे, रामचरित में रावण का वध। अतः घटनाप्रधान प्रबंधकाव्य में उन्हीं वृत्तांतों का सन्निवेश अपेक्षित होता है जो उस साध्य 'कार्य' के साधनमार्ग में पड़ते हैं अर्थात् जिनका उस कार्य से संबंध होता है। प्राचीन यवन आचार्य अरस्तु ने इसका विचार अपने 'काव्यसिद्धांत' के आठवें प्रकरण में किया है और यह अब भी पाश्चात्य समालोचकों में कार्यान्वय' (यनिटी आफ ऐक्शन) के नाम से प्रसिद्ध है।
'पदमावत' में कार्य है पद्मावती का सती होना। उसकी दृष्टि से राघव चेतन का उतना ही वृत्त पाया है जितने का घटनाओं के 'कार्य' की ओर अग्रसर करने में योग है। इसी सिद्धांत पर न तो चित्तौर की चढ़ाई के उपरांत राघव की कोई चर्चा आती है और न विवाह के उपरांत तोते की। यहाँ पर दो प्रसंगों पर विचार कीजिए-- सिंहल से लौटते समय समुद्र के तूफान के प्रसंग पर और देवपाल के दूती भेजने के प्रसंग पर। तूफानवाली घटना यद्यपि प्रधान नायक के जीवन की घटना है पर यों देखने में 'कार्य' से बिलकुल असंबद्ध नहीं है। कवि ने बड़े कौशल से सूक्ष्म संबंधसूत्र रचा है। उसी घटना के अंतर्गत रत्नसेन को समुद्र से पाँच रत्न प्राप्त हुए थे। जब अलाउद्दीन से चित्तौर गढ़ न टूट सका तब उसने संधि के लिये वे ही पाँच रत्न रत्नसेन से माँगे। अतः वे ही पाँच रत्न उस संधि के हेतु हुए जिसके द्वारा बादशाह का गढ़ में प्रवेश और रत्नसेन का बंधन हुआ। प्रबंधनिपुणता यही है कि जिस घटना का सन्निवेश हो वह ऐसी हो कि 'कार्य' से दूर या निकट का संबंध भी रखती हो और नए नए विशद भावों की व्यंजना का अवसर भी देती हो। देवपाल की दूती का पाना भी इसी प्रकार की घटना है जो सतीत्वगौरव की अपूर्व व्यंजना के लिये अवकाश भी निकालती है और रत्नसेन को उस मृत्यु का हेतु भी होती है जो 'कार्य' का (पद्मावती के सती होने का) कारण है।
'कार्यान्वय' के अंतर्गत ही यवनाचार्य ने कहा कि कथावस्तु के आदि, मध्य और अंत तीनों स्फुट हों। आदि से प्रारंभ होकर कथाप्रवाह मध्य में जाकर कुछ ठहरा सा जान पड़ता है, फिर चट 'कार्य' को और मड़ पड़ता है। ‘पदमावत' को कथा में हम तीनों अवस्थाओं को अलग अलग बता सकते हैं। पदमावती के जन्म से लेकर रत्नसेन के सिंहलगढ़ घेरने तक कथाप्रवाह का प्रादि समझिए, विवाह से लेकर सिंहलद्वीप से प्रस्थान तक मध्य और राघव चेतन के देशनिर्वासन से लेकर पद्मिनी के सती होने तक अंत। आदि अंश को सब घटनाएँ मध्य अर्थात् विवाह को ओर उन्मुख हैं। विवाह के उपरांत जो उत्सव, समागम और सुखभोग आदि का वर्णन है उसे मध्य का विराम समझिए। उसके उपरांत राघव चेतन के निर्वासन से घटनाओं का प्रवाह कार्य" की ओर मुड़ता है।