विवरण जोड़े गए हैं—जैसे पदमावती के प्रथम समागम के अवसर पर सोलह शृंगारों और बारह आभरणों के नाम, सिंहलद्वीप से रत्नसेन और पदमावती की यात्रा के समय फलित ज्योतिष के यात्राविचार की पूरी उद्धरणी, राघव का बादशाह के सामने पद्मिनी, चित्रणी आदि स्त्रीभेद कथन।
कई स्थलों पर तो 'गूढ़ बानी' का दम भरनेवाले मूर्खपंथियों के अनुकरण पर कुछ पारिभाषिक शब्दों से ढँकी हुई थिगलियाँ व्यर्थ जोड़ी जान पड़ती हैं, जैसे, विवाह के समय भोजन के अवसर पर बाजा न बजने पर यह कथोपकथन—
तुम पंडित जानहु सब भेदू। पहिले नाद भएउ तब वेदू॥
आदि पिता जो विधि अवतारा। नाद संग जिउ ज्ञान विचारा॥
नाद, वेद मद, पैड़ जो चारी। काया महँ ते लेहु विचारी॥
नाद हिये मद उपनै काया। जहँ मद तहाँ पैड़ नहीं छाया॥
अथवा प्रथम समागम के समय सखियों द्वारा पद्मावती के छिपाए जाने पर राज रत्नसेन का यह रसायनी प्रलाप—
का पूछहु तुम धातु, निछोही। जो गुरु कीन्ह अँतरपट ओही॥
सिधि गुटिका अब मो सँग कहा। भएउ राँग, सत हिये न रहा॥
सोन रूप जासौं दुख खोलौं। गएउ भरोस तहाँ का बोलौं?॥
जहँ लोना बिरवा कै जाती। कहि कै सँदेस आन को पाती॥
कै जो पार हरतार करीजै। गंधक देखि अवहि जिउ दीजै॥
तुम जोरा कै सूर मयंकू। पुनि बिछोहि सो लीन कलंकू॥
इन उक्तियों में 'सोन', 'रूप', 'लोना', 'जोरा कै' आदि में श्लेष और मुद्रा का कुछ चमत्कार अवश्य है पर यह सारा कथन रस में सहायता पहुँचता नहीं जान पड़ता। कुछ समाधान यह कहकर किया जा सकता है कि राजा रत्नसेन जोगी होकर अनेक प्रकार के साधुओं का सत्संग कर चुका था इससे विप्रलब्ध में उसका यह पारिभाषिक प्रलाप बहुत अनुचित नहीं। पर कवि ने इस दृष्टि से उसकी योजना नहीं की है। पारिभाषिक शब्दों से भरे कुछ प्रसंग घुसेड़ने का जायसी को शौक ही रहता है, जैसे पद्मावती के मुँह से 'तौ लगि रंग न राँचै जौ लगि होइ न चून' सुनते ही राजा रत्नसेन पानों की जातियाँ गिनाने लगता है—
हौं तुम नेह पियर भा पानू। पेड़ी हुँत सोनरास बखानू॥
सुनि तुम्हार संसार बड़ौना। जोग लोन्ह, तन कीन्ह गड़ौना॥
फेरि फेरि तन कीन्ह भँजौना। औटि रकत रंग हिरदय औना॥
एकदेशप्रसिद्ध ऐसे शब्दों के प्रयोग से जो 'अप्रतीत्व' दोष आता है वह इस अनावश्यक विराम के बीच और भी खटकता है। कहीं कहीं तो जायसी कोई शब्द पकड़ लेते हैं और उसपर यों ही बिना प्रसंग के उक्तियाँ बाँध चलते हैं—जैसे, बादशाह की दावत के प्रकरण में पानी का जिक्र आया कि 'पानी' को ही लेकर वे यह ज्ञानचर्चा छेड़ चले
पानी मूल परख जौ कोई। पानी बिना सवाद न होई॥
अमृतपान यह अमृत आना। पानी सौं घट रहै पराना॥