सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६० )

पानी दूध औ पानी घीऊ। पानि घटे घट रहै न जीऊ॥
पानी माँझ समानी जोती। पानिहि उपजै मानिक मोती॥
सो पानी मन गरव न करई। सीस नाइ खाले पग धरई॥

जायसी के प्रबंधविस्तार पर और कुछ विचार करने के पहले हमने उसके दो विभाग किए थे—इतिवृत्तात्मक और रसात्मक। इतिवृत्त की दृष्टि से तो विचार हो चुका। अब ररसात्मक विधान की भी थोड़ी बहुत समीक्षा आवश्यक है। इतिवृत्त के विषय में यह कहा जा चुका है कि 'पदमावत' के घटनाचक्र के भीतर ऐसे स्थलों का पूरा सन्निवेश है जो मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति का उद्‍बोधन कर सकते हैं, उसके हृदय को भावमग्न कर सकते हैं। अब देखना यह है कि कवि ने घटनाक्रम के बीच उन स्थलों को पहचानकर उनका कुछ विस्तृत वर्णन किया है या नहीं। किसी कथा के सब स्थल ऐसे नहीं होते जिनमें मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति लीन होती हो। एक उदाहरण लीजिए। किसी वणिक को व्यापार में घाटा आया जिसके कारण उसके परिवार की दशा बहुत बुरी हो गई। कवि यदि इस घटना को लेगा तो वह घाटा किस प्रकार आया, पूरे ब्योरे के साथ इसका सूक्ष्म वर्णन न करके दीन दशा का ही विस्तृत वर्णन करेगा। पर यदि व्यापारशिक्षा की किसी पुस्तक में यह घटना ली जायगी तो उसमें घाटे के कारण आदि का पूरा सूक्ष्म ब्योरा होगा। 'पद्मावत' की कथा पर विचार करके हम कह सकते हैं कि उसमें जिन जिन स्थलों का वर्णन अधिक ब्योरे के साथ है—ऐसे ब्योरे के साथ है जो इतिवृत्त मात्र के लिये आवश्यक नहीं, जैसे किसी का वचन, संवाद या वस्तुव्यापारचित्रण—वे सब रागात्मिका वृत्ति से संबंध रखनेवाले हैं; केवल उन प्रसंगों को छोड़ जिनका उल्लेख 'अनावश्यक विराम' के अंतर्गत हो चुका है। काव्यों में विस्तृत विवरण दो रूपों में मिलते हैं—

(१) कवि द्वारा वस्तुवर्णन के रूप में।

(२) पात्र द्वारा भावव्यंजना के रूप में।


कवि द्वारा वस्तुवर्णन

वस्तु-वर्णन-कौशल से कवि लोग इतिवृत्तात्मक अंशों को भी सरस बना सकते हैं। इस बात में हम संस्कृत के कवियों को अत्यंत निपुण पाते हैं। भाषा के कवियों में वह निपुणता नहीं पाई जाती। मार्ग चलने का ही एक छोटा सा उदाहरण लीजिए। राम किष्किंधा की ओर जा रहे हैं। तुलसीदास जी इसका कथन इतिवृत्त के रूप में इस प्रकार करते हैं—

आगे चले बहुरि रघुराया। ऋष्यमूक पर्वत नियराया॥

किसी पर्वत की ओर जाते समय दूर से उसका दृश्य कैसा जान पड़ता है, फिर ज्यों ज्यों उसके पास पहुँचते हैं त्यों त्यों उस दृश्य में किस प्रकार अंतर पड़ता जाता है, पहाड़ी मार्ग के आस पास का दृश्य कैसा हुआ करता है, यह सब ब्योरा उक्त कथन में या उसके आगे कुछ भी नहीं है। वहीं रघुवंश के द्वितीय सर्ग में दिलीप, उनकी पत्नी और नंदिनी गाय के 'मार्ग चलने का दृश्य' देखिए। आसपास की प्राकृ-