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पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/८१

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तिक परिस्थिति का कैसा सूक्ष्म बिंबग्रहण कराता हुआ कवि चला है। चलने में मार्ग के स्वरूप को ही देखिए कवि ने कैसा प्रत्यक्ष किया है—

तस्या खुरन्यासपवित्रपांसुमपांसुलानां धुरि कीर्त्तनीया।
मार्गं मनुष्येश्‍वरधर्मपत्‍नी श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्॥

'गाय के पीछे पीछे पगडंडी पर सुदक्षिरणा चली' इतना ही तो इतिवृत्त है, पर 'जिसकी धूल पर नंदिनी के खुर के चिह्न पड़ते चलते हैं यह विशेषण वाक्य देकर कवि ने उस मार्ग का चित्र भी खड़ा कर दिया है। वस्तुओं की ऐसी संश्लिष्ट योजना द्वारा बिंबग्रहण कराने का—वस्तुओं का अलग अलग नाम लेकर अर्थग्रहण मात्र कराने का नहीं—प्रयत्न हिंदी कवियों में बहुत ही कम दिखाई पड़ता है। अतः जायसी में भी हम इसका आभास बहुत कम पाते हैं। इन्होंने जहाँ जहाँ वस्तुवर्णन किया है वहाँ वहाँ भाषाकवियों की पृथक् पृथक् वस्तुपरिगणनवाली शैली ही पर अधिकतर किया है। अतः ये वर्णन परंपरायुक्त ही कहे जा सकते हैं। केवल वस्तुपरिगणन में नवीनता कहाँ तक आ सकती है? ऋतु का वर्णन होगा तो उस ऋतु में फलने फूलनेवाले पेड़ पौधों और दिखाई पड़नेवाले पक्षियों के नाम होंगे, वन का वर्णन होगा तो कुछ इने गिने जंगली पेड़ों के नाम आ जायँगे, नगर या हाट का वर्णन होगा तो बाग बगीचों, मकानों और दुकानों का उल्लेख होगा। नवीनता की संभावना तो कवि के निज परीक्षण द्वारा प्रत्यक्ष की हुई वस्तुओं और व्यापारों की संश्लिष्ट योजना में ही हो सकती है। सामग्री नई नहीं होती, उसकी योजना नए रूप में होती है।

ऊपर लिखी बात का ध्यान रखते हुए भी यह मानना पड़ता है कि वस्तुवर्णन के लिये जायसी ने घटनाचक्र के बीच उपयुक्त स्थलों को चुना है और उनका विस्तृत वर्णन अधिकतर भाषाकवियों की पद्धति पर होते हुए भी बहुत ही भावपूर्ण है। अब संक्षेप में कुछ मुख्य स्थलों का उल्लेख किया जाता है जिन्हें वर्णनविस्तार के लिये जायसी ने चुना है।

सिंहलद्वीप वर्णन—इसमें बगीचों, सरोवरों, कुओं, बावलियों, पक्षियों, नगर, हाट, गढ़, राजद्वार और हाथी घोड़ों का वर्णन है। अमराई की शीतलता और सघनता का अंदाज इस वर्णन से कीजिए— घन अमराउ लाग चहुँ पासा। उठा भूमि हुँत लागि अकासा॥ तरिवर सबै मलयगिरि लाई। भइ जग छाँह, रैनि होइ आई॥ मलय समीर सोहावनि छाँहा। जेठ जाड़ लागे तेहि माहाँ॥ ओही छाँह रैनि होइ आवै। हरियर सबै प्रकास देखावै॥ पथिक जो पहुँचै सहिके घामू। दुख बिसरे, सुख होइ बिसरामू॥

इतना कहते कहते कवि का ध्यान ईश्वर के सामीप्य की भावना की ओर चला जाता है और वह उस अमर धाम की ओर, जहाँ पहुँचने पर भवताप से निवृत्ति हो जाती है, इस प्रकार संकेत करता है—

जेइ पाई वह छाँह अनूपा। फिरि नहि आइ सहै यह धूपा॥