पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६३ )

करिल केस बिसहर बिस भरे। लहरेँ लेहिं कवँल मुख धरे॥
नवल बसंत सँवारी करी। भई प्रगट जानहु रस भरी॥
सरवर नहिं समाइ संसारा। चाँद नहाइ पैठ लेइ तारा॥

उल्लास के अनुरूप क्रिया जायसी ने इस खेल में दिखाई है—

सँवरिहि साँवरि गोरिहि गोरी। आपनि आपनि लीन्हि सो जोरी॥

सिंहलद्वीप यात्रावर्णन—वस्तुवर्णन की जो पद्धति जायसी की कही गई है उसे ध्यान में रखते हुए मार्गवर्णन जैसा चाहिए वैसे की आशा नहीं की जा सकती। चित्तौर से कलिंग तक जाने में मार्ग में न जाने कितने वन, पर्वत, नदी, निर्झर, ग्राम, नगर तथा भिन्न भिन्न आकृति प्रकृति के मनुष्य इत्यादि पड़ेंगे पर जायसी ने उनका चित्रण करने की आवश्यकता नहीं समझी। केवल इतना ही कहकर वे छुट्टी पा गए—

है आगे परबत कै बाटा। विषम पहार अगम सुठि घाटा॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा। ठाँवहि ठाँव बैठ बटपारा॥

प्राकृतिक दृश्यों के साथ जायसी के हृदय का वैसा मेल नहीं जान पड़ता। मनुष्यों के शारीरिक सुख दुःख से, उनके आराम और तकलीफ से, उनका जहाँ तक संबंध होता है वहीं तक उनकी ओर उनका ध्यान जाता है। और अमराइयों का वर्णन वे जो करते हैं सो केवल उनकी सघन शीतल छाया के विचार से। वन का जो वे वर्णन करते हैं वह कुश कंटकों के विचार से, कष्ट और भय के विचार से—

करहु दीठि थिर होइ बटाऊ। आगे देखि धरहु भुइँ पाऊ॥
जो रे उबट होइ परे भुलाने। गए मारि, पथ चलै न जाने॥
पायँन पहिरि लेहु सब पौंरी। काँट धँसै न गड़े अँकरौरी॥
परे आई वन परबत माहाँ। दंडाकरन बीझ बन गाहाँ॥
सघन ढाक बन चहुँदिसि फूला। बहु दुख पाव उहाँ कर भूला॥
झाँखर जहाँ सो छाँड़हु पंथा। हिलगि मकोय न फारहु कंथा॥

फारसी की शायरी में जंगल और बयावान का वर्णन केवल कष्ट या विपत्ति के प्रसंग में आता है। वहाँ जिस प्रकार चमन आनंदोत्सव का सूचक है उसी प्रकार कोह या बयावान विपत्ति का। संस्कृत साहित्य का जायसी को परिचय न था। वे वन, पर्वत आदि के अनुरंजनकारी स्वरूप के चित्रण की पद्धति पाते तो कहाँ पाते? उनकी प्रतिभा इस प्रकार की न थी कि किसी नई पद्धति की उद्भावना करके उसपर चल खड़ी होती।

समुद्रवर्णन—हिंदी के कवियों में केवल जायसी ने समुद्र का वर्णन किया है, पर पुराणों के 'सात समुद्र' के अनुकरण के कारण समुद्र का प्रकृत वर्णन वैसा होने नहीं पाया। क्षीर, दधि और सुरा के कारण समुद्र के प्राकृतिक स्वरूप का अच्छा प्रत्यक्षीकरण न हो सका। आरंभ में समुद्र का जो सामान्य वर्णन है उसके कुछ पद्य अवश्य समुद्र की महत्ता और भीषणता का चित्र खड़ा करते हैं, जैसे—

समुद अपार सरग जनु लागा। सरग न घाल गनै बैरागा॥
उठै लहरि जनु ठाढ़ पहारा। चढ़ै सरग औ परै पतारा॥