पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/८४

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विशेष समुद्रों में से केवल 'किलकिला समुद्र' का वर्णन अत्यंत स्वाभाविक तथा वैसे महत्वजन्य आश्चर्य और भय का संचार करनेवाला है जैसा समुद्र के वर्णन द्वारा होना चाहिए--

भा किलकिल अस उठे हिलोरा। जनु अकास टूटै चहुँ ओरा।।
उठहि लहरि परबत कै नाई। फिरि पावहिं जोजन सौ ताई।।
धरती लेइ सरग लहि बाढ़ा। सकल समुद जानहु भा ठाढ़ा।।
नीर होइ तर ऊपर सोई। माथे रभ समुद्र जस होई।।

यदि इस प्रकार के वर्णन का विस्तार और अधिक होता तो क्या अच्छा होता! 'समुद्र अपार सरग जनु लागा' इस वाक्य में विस्तार का बहुत ही सुंदर प्रत्यक्षीकरण हुआ है। जहाँ तक दृष्टि जाती है वहाँ तक समुद्र ही फैला हुआ और क्षितिज से लगा हुआ दिखाई पड़ता है। दृश्य रूप में विस्तार का यह कथन अत्यंत काव्योचित है। अँगरेजी के कवि गोल्डस्मिथ ने भी अपने 'श्रांत पथिक' (ट्रैवेलर) नामक काव्य में विस्तार का प्रत्यक्षीकरण-'ए वेयरी वास्ट इक्स्पैडिंग टु द स्काईज' (आकाश तक फैला हुया मैदान) कहकर किया है। 'परबत कै नाई' इस साम्य द्वारा भी लहरों की ऊँचाई की जो भावना उत्पन्न की गई वह काव्यपद्धति के बहुत ही अनुकूल है। इसके स्थान पर यदि कहा गया होता कि लहरें बीस पचीस हाथ ऊंची उठती हैं तो माप शायद ठीक होती पर जो प्रभाव कवि उत्पन्न किया चाहता था वह उत्पन्न न होता। इसी से काव्य के वर्णनों में संख्या या परिमाण का उल्लेख नहीं होता और जहाँ होता भी है वहाँ उसका लाक्षणिक अर्थ ही लिया जाता है जैसे "फिरि पावहि जोजन सौ ताई" में। काव्य के वाक्य श्रोता की ठीक मान निर्धारित करनेवाली या सिद्धांत निरूपित करनेवाली निश्चयात्मिका बद्धि को संबोधन करके नहीं कहे जाते।

समुद्र के जीव जंतुओं का जो काल्पनिक और अत्युक्त वर्णन जायसी ने किया है उससे सूचित होता है कि उन्होंने किस्से कहानियों में सुनी सूनाई बातें ही लिखी हैं, अपने अनुभव की नहीं। उन्होंने शायद समुद्र देखा भी न रहा हो।

सात समुद्रों के जो नाम जायसी ने लिखे हैं उनमें से प्रथम पाँच तो पुराणानकूल हैं, पर अंतिम दो किलकिला और मानसर--भिन्न हैं। पुराणों के अनुसार सात समुद्रों के नाम हैं क्षार (खारे पानी का), जल (मीठे पानी का), क्षीर, दधि, घृत, सुरा और मधु। इनमें से जायसी ने घृत और मधु को छोड़ दिया है। सिंहलद्वीप के पास 'मानसर' की कल्पना वैसी ही है जैसी कैलास में इद्र और अप्सराओं की।

विवाहवर्णन--इसमें आनंदोत्सव और ओज का वर्णन है। सजावट आदि का चित्रण अच्छा है। इसमें राजा के ऐश्वर्य और प्रजा के उल्लास का आभास मिलता है--

रचि रचि मानिक माँड़व छावा। औ भुइँ रात बिछाव बिछावा।।
चंदन खाँभ रचे बहु भाँती। मानिक दिया बरहिं दिन राती।।