साजा राजा, बाजन बाजे। मदन सहाय दुवौ दर गाजे॥
औ राता सोने रथ साजा। भए बरात गोहने सब राजा॥
घर घर बंदन रचे दुवारा| जावत नगर गीत झनकारा॥
हाट बाट सब सिंघल, जहँ देखहुँ तहँ रात।
धनि रानी पदमावती, जेहिकै ऐसि बरात॥
बरात निकलने के समय अटारियों पर दूल्हा देखने की उत्कंठा से भरी स्त्रियों का जमावड़ा भारतवर्ष का एक बहुत पुराना दृश्य है। ऐसे दृश्यों को रखना जायसी नहीं भूलते, यह पहले कहा जा चुका है। पद्मावती अपनी सखियों को लेकर बर देखने की उत्कंठा से कोठे पर चढ़ती है—
पद्मावति धौराहर चढ़ी। दहुँ कस रवि जेहि कहँ ससि गढ़ी॥
देखि बरात सखिन्ह सौं कहा। इन्ह महँ सो जोगी कहँ अहा?॥
सखियाँ उँगली से दिखाती हैं कि वह देखो—
जस रवि, देखु, उठै परभाता। उठा छत्र तस बीच बराता॥
ओहि माँझ भा दूलह सोई। और बरात संग सब कोई॥
इस कथन में कवि ने निपुणता यह दिखाई है कि सखी उस बरात के बीच पहले सबसे अधिक लक्षित होनेवाली वस्तु छत्र की ओर संकेत करती है; फिर कहती है कि उसके नीचे वह जोगी दूल्हा बना बैठा है।
भोज के वर्णन में व्यंजनों और पकावानों की नामावली है।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने राम सीता के विवाह का जितना विस्तृत वर्णन किया है उतना विस्तृत वर्णन जायसी का नहीं है। गोस्वामी जी का रामचरितमानस लोकपक्षप्रधान काव्य है और जायसी के 'पद्मावत' में व्यक्तिगत प्रेमसाधना का पक्ष प्रधान है। अतः 'पदमावत' में लोकव्यवहार का जो इतना चित्रण मिलता है उसी को बहुत समझना चाहिए। जैसा पहले कह आए हैं, इश्क की मसनवियों के समान यह लोकपक्षशून्य नहीं है।
युद्ध-यात्रा-वर्णन—सेना की चढ़ाई का वर्णन बड़ी धूमधाम का है। ग्रंथारंभ में शेरशाह की सेना के प्रसंग की चौपाइयाँ ही देखिए, कितनी प्रभावपूर्ण हैं—
हय गय सेन चलै जग पूरी। परबत टूटि मिलहिं होइ धूरी॥
रेनु रैनि होइ रविहिं गरासा। मानुख पंखि लेहिं फिरि बासा॥
भुइँ उड़ि अंतरिक्ख मृदमंडा| खंड खंड धरती बरम्हंडा॥
डोलै गगन, इंद्र डरि काँपा। बासुकि जाइ पतारहिं चाँपा॥
मेरु धसमसै, समुद्र सुखाई। बनखँड टूटि खेह मिलि जाई॥
अगिलन्ह कहँ पानी लेइ बाँटा। पलिछन्ह कहँ नहिं काँदौ आँटा॥
इसी ढंग का चित्तौर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का बड़ा विस्तृत वर्णन है—
बादसाह हठि कीन्ह पयाना। इंद्र भंडार डोल भय माना॥
नब्बे लाख सवार जो चढ़ा। जो देखा सो सोने मढ़ा॥
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