अत्रि ज्ञानकोष (अ)१५३ अथगड़ अत्रि--इस शब्दका अर्थ खानेवाला' है। विन्दु, कर्णजिह्व, हरप्रीति, मैद्राणी, शाकलायनि, इस नामके एक ब्रह्मर्षि हो गये हैं। इनका उल्लेख तैलप, वैसेय दूसरा अत्रि, गोणिपति, जलद, भग. वेदमें भी आया है। ये अग्नि इन्द्र, अश्विन, पाद, सौपुष्पि, तथा छन्दोगय तो आत्रेय कहलाते तथा विश्वदेवता श्रादिके सूत्रकर्ता थे। पुराण थे, और प्रार्चनानस, श्यावाश्च श्रादि त्रिप्रवर थे। में इनका उल्लेख भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न गविष्ठिर कुलोत्पन्न, दाक्षि, बलि, पर्णवि, उर्ण- रूपसे आया है। स्वायंभूमन्वन्तरमें ब्रह्माने प्रजो नाभि, शिलादनिवि तथा भलन्दन इत्यादि आत्रेय त्पादनके लिये दस मानस पुत्र उत्पन्न किये थे। थे। त्रिप्रवरोके दो भेद थे। वाद्भूतक कुलो- उनमेसे एक ये भी थे। ये ब्रह्माके नेत्रसे उत्पन्न त्पन्न श्रात्रेय, गविष्ठिर, पौर्वातिथ भी त्रिप्रवरों मेसे हुए थे। इनकी स्त्री कर्दम प्रजापतिकी कन्या । थे। इसी भाँति इसमें अनेक भेद, प्रतिभेद हैं। अनुसूया थी। इनको अनुसूयासे दत्त, दुर्वासा ! किन्तु सुमंगल कुलको आत्रेय सुमंगल श्यावाश्य और सोम नामके तीन पुत्र उत्पन्न हुए थे। आगे कह कर बोध किया जाता चलकर उली मन्वन्तरमें महादेवके श्रापसे सम्पूर्ण कालेय, वालेय, वामरथ्य, यात्रेय, मैत्रय, कौन्द्रेय ब्रह्म मानस पुत्रोंके साथ साथ यह भी मर गये। शौम्नेय इत्यादि ऋषि अत्रिकी कन्याके वंशमें से (२) पहलेके सव पुत्रोंके मर जाने पर ब्रह्माने थे। इनके आत्रेय, वामथ्य, तथा पौत्री प्रवर वैवस्वत मन्वन्तरमें पुनः पुत्रोत्पादन किया। इस होते हैं। ( मत्स्य० १० १६६ )। इन कन्या बार ब्रह्मा द्वारा किये हुए यज्ञकी अग्निसे ये उत्पन्न कुलोत्पन्न वंशवालोंका विवाह विश्वामित्र तथा हुए। इस बार भी अनुसूया ही इनकी स्त्री थी। वशिष्ठ-कुलोत्पन्नोंका विवाह नहीं होता। इनको चार पुत्र और एक कन्या हुई थी। पुत्रों (३) चालू वैवस्वत मन्वन्तरके १९वौं चौकड़ी के नाम दत्त, दुर्वासा, सोम तथा अर्थमा और में उत्पन्न हुए एक व्यास। यह निश्चयपूर्वक नहीं कन्याका नाम अमला था। अब भी प्रति ज्येष्ठ कहा जा सकता कि यह व्यास कौनसे अत्रि थे। मासमें द्वादश सूर्यों में से एक सूर्यके समागममें यह इसलिये ऐसा भास होता है कि बसिष्ठ तथा संचार करता है। अंगिरस, दोनों ही कुलोंमें एक एक अत्रि होगये दण्डकारण्यम जब बनवासी श्रीरामने प्रवेश हैं। उन्हींमे से एक यह भी होंगे। किया था तो इनके आश्रममें भी गये थे। उस । (४) चालू मन्वन्तरके सप्तर्षियों में से जो एक समय उन्होंने श्रीरामचन्द्रका बड़े प्रेमसे अतिथि अत्रि हैं, वह भी इन्हीं उपरोक्त दोनों में से सत्कार किया था। इसी भाँति अनुसूयाने भी एक होंगे। सीताका अतिथिसत्कार कर उसे पतिव्रतधर्मका (५) गौतमऋषिके एक मित्र द्वितियार्थक ऋषि उपदेश किया था। तदनन्तर जब सीता रामके शुक थे। उनके चार पुत्रों से यह दूसरे थे। साथ जानेको प्रस्तुत हुई तो उनको मार्गश्रम एक समय ये महर्षि एक वेन कुलोत्पन्न राजाके तथा राक्षसादि भयसे सुरक्षित रखने के हेतु अनु- यहाँ द्रव्य याचनाके लिये गये। वहाँ पहुँच कर सूयाने अंगरादिक उत्तम उत्तम वस्तुयें दी । महर्षि । उन्होंने राजाकी स्तुति की। उस स्तुतिमें इतनी अत्रिने रामचन्द्रको वनमें के मार्ग बताकर बिदा प्रशंसाकी कि राजाको साक्षात् ईश्वर ही बना किया। (वा० रा०प्र० स०११७-१२६)। दिया। राजाने उस स्तुतिका तिरस्कार करके इनके कुलमै इनके सहित ६ मन्त्रदृष्टऋषि थे। कहा कि राजाको ईश्वरसे साम्यता दिखलाना घोर उनके नाम इस प्रकार हैं-(१) अर्द्धखन, (२) अनुचित है। इन दोनों से किसका कहना ठोक श्वावाख, (३) गविष्टिर, (४) कर्णक, (५ है। इसका निर्णय कराने के लिये यह प्रश्न सभा पूर्वातिथि, (६) तथा वे स्वयम् । मत्स्य के सन्मुख रक्खा गया किन्तु कोई भी ठीकसे जब अ० १४४)। निर्णय न कर सका तो इसका निर्णय कराने के इनके वंशको चलानेवाले नौ ऋषि थे। उनके लिये यह प्रश्न साक्षात् सनत्कुमारके पास भेजा नाम निम्नलिखित है-अत्रि, गविष्ठिर, वान्दूतक, गया। सनत्कुमारने ऋषिके कहनेको ही उचित मुद्गल, अतिथि, वामरथ्य, सुमंगल, बीजवाय, ठहराया। इसपर राजाने प्रसन्न होकर इच्छासे तथा धनञ्जय। इसमें दो भाग हो गये थे। एक भी अधिक धन देकर ऋषिको विदा किया। ऋषि तो अत्रि वंशीय और दूसरे प्रवर कहलाते थे। भी अपने आश्रमको लौट गये। (भारत वन उद्दालकि, शोण, कर्णिरथ, शौकतु, गौरनीव गौर-पर्व अ० १८५) । जिन, चैतायण, अर्द्धपण्य, वामरथ, गोपन, तकि अथगढ़ -उड़ीसा प्रान्तकी यह एक देशी २०
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