पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/१७५

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अथर्व० ५.२३. अथर्ववेद ज्ञानकोष (अ) १६२ अथर्ववेद हुतासो अस्य वेशलोहतासः परिवेशसः। अथो पिशाचों, चोरों और जङ्गलमें भटकनेवालोसे ये क्षुल्लका इव सर्वे ते क्रिमयो हताः॥१२॥ मैं कुछभी संबंध (सरोकार ) नहीं रखता। इसके सर्वेषां च क्रिमीणां सर्वासां च क्रिमीणाम् । विपरीत मैं जिस जिस गाँवमें जाता हूँ वहाँ के भिनिङ्ग्यश्मना शिरो दहाम्यग्निना मुखम् ॥ १३ ॥ पिशाच गायब हो जाते हैं ॥ ७ ॥ जिन जिन गाँवों में मेरे मंत्र सामर्थ्यका चमत्कार हे धनके स्वामी इन्द्र ! इस बालकके शरीर दृष्टिगोचर होता है वहाँसे पिशाच दूर भागते हैं पर उत्पन्न कृमि ( कीड़ो) को मार डाल ! मेरे और लोगोंको किसी तरहका कष्ट नहीं होता॥८॥ उन (तेजस्वी) मंत्रोंके बलसे लब शत्रु मर गये ॥२॥ इन मंत्रोसे स्पष्ट है कि मांत्रिक लोग अपनी जो कृमि (कीड़ा) अांख में जाता है, जो नाक । शक्तिमें कितना अटूट विश्वास रखते थे। में घुसता है, जो दातोंमें घर बनाता है, उसे मैं लोगोमै एक कल्पना यहभी प्रचलित है कि मारे डालता हूँ॥३॥ राक्षस, भूत और पिशाच आदि मानवजातिम दो एक जाति के, दो भिन्न जातिके, दो काले, रोग उत्पन्न करते हैं। दूसरी कल्पना-जो संसारमै दो लाल, एक भूरा और भूरे कानवाला, गिद्ध बहुत रूढ़ है-यहभी है कि प्रासुरीस्त्री-पुरुष (भूत और भेड़िया, ये सब मार डाले गए ॥४॥ चुड़ल , मानवी स्त्री-पुरुषौको रातके समय घेरते जिन कीडोंकी बगले सफेद हैं, जो काले हैं हैं और उनपर जबर्दस्ती करते हैं । प्राचीन हिन्दु- और जिनकी भुजायें सफेद हैं. जिनके रूप अनेक औमें ऐसे स्त्री-पुरुष अप्सराएँ और गन्धर्व माने हैं। ऐसे कीड़ोंको मैं मार डालता हूँ॥५॥ गए हैं। ये जल-देवता. वन-देवता या निसर्ग कृमियों (कीड़ो) का राजा मार डाला गया, (सृष्टि) देवताओंकी तरहही थे। इन लोगोंके जिसकी माँ, भाई बहन आदि मार डाले गए वह रहने के स्थान नदियाँ और पेड़ आदि हैं। ये लोग कृमि भी मार डाला गया॥११॥ मनुष्योंको भुलावा देकर उनसे सृष्टिके नियमोके उसका परिवार नष्ट होगया, उसके आसपास विरुद्ध संभोग करने के लिये अपने रहनेके स्थान के लोग मार डाले गए और वे भी जो बहुत क्षुद्र छोड़कर बाहर निकल पड़ते हैं। ऐसे देवताओंसे (छोटे) थे नष्ट हो गए ॥ १२ ॥ अपनेको बचानेके लिये उस काल के मांत्रिक अज- सब स्त्री पुरुष (नर-मादा) कृमि (कीड़ों) श्रृंगी नामकी सुगंधित वनस्पतिको काममें लाते का-उनमेंसे हरएक का-सिर में पत्थरसे कूचता थे। उस मौके पर वे अथर्ववेद के ४थे कांडके ३७वें हूँ और हरएक का मुंह अग्निसे जलाता ॥ १३॥ सूक्तको भी कहते थे इस बेदमें ऐसे भी बहुतसे मंत्र हैं जो भिन्न त्वया वयमप्सरसो गन्धर्वाश्चातयामहे । अज- भिन्न रोगोंके उत्पादक ( पैदा करनेवाले ) माने मृङ्गयज रक्षः सर्वान् गन्धेन नाशय ॥२॥ गए । उनको पिशाच अथवा राक्षसके नामोसे नदों यन्त्वप्सरसोपां तारमवश्वसम्। गुल्गुलू : संबोधित किया गया है। उद्देश केवल उनका | पीला नलद्यौरक्षगन्धिः प्रमन्दनी । तत् परेताप्ल- अपसारण करना है। इस विषयमें निम्नलिखित ! रसः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥ ३॥ ऋचाएँ हैं- यत्राश्वत्था न्यग्रोधा महावृक्षाः शिखण्डिनः । तपनो अरिम पिशाचानां व्याघ्रो गोमतामिव । तत् परेताप्सरसः प्रतिबुद्धा अभूतन ॥ ४॥ श्वानः सिंहमिव दृष्ट्वा ते न विन्दन्ते न्यञ्चनम् ॥ ६॥ श्रानृत्यतः शिखण्डिनो गन्धर्वस्याप्सरापतेः। न पिशाचैः सं शक्नोमि न स्तेनैर्न वनर्गुभिः । भिननि मुष्कावपि यामि शेपः ॥ ७॥ पिशाचास्तस्मान्नश्यन्ति यमहं ग्राममाविशे॥७॥ श्ववैकः कपिरिवैकः कुमारः सर्वकेशकः । प्रियो यं ग्राममाविशत इदमुग्रं सहो मम । पिशाचा- दृश इव भूत्वा गन्धर्वः सचते स्त्रियस्तमितो नाश- स्तस्मान्नश्यन्ति न पापमुप जानते ॥८॥ यामसि ब्रह्मणा वीर्यावता ॥ ११ ॥ तेरे बलपर हम गंधों और अप्सराओको ढोरॉके मालिकोको जिस तरह वायसे हानि | नाश करते हैं। हे अजश्वगि, सब राक्षसोको भगा उठानी पड़ती है उसी तरह पिशाच (भूत) मेरे दे; अपनी सुगंधिसे सबको नष्ट कर दे ॥२॥ मंत्र सामर्थ्यके सामने बे-बस हो जाते हैं। सिंहको ये अप्सराएँ नदीमें अपने स्थान पर चली देखकर कुत्ता जिस प्रकार छिपनेका समय भी नहीं जायँ । गूगुल. पीला, नलदी, अक्षगंधी, प्रमन्दनी पाता उसी प्रकार पिशाचमी ( मुझसे छिपकर) श्रादिके हवनसे वे उर जायें । अव उनके चले कहीं छिप नहीं सकते ॥ ६ ॥ ! जाने पर तुम्हारा चित्त शांत हुआ ॥३॥ । 1 अथर्व०४.३६०