अपराजिता ज्ञानकोश अ)२५८ अपस्मार गई हैं, बल्कि इनमें उन कथाश्रोका वर्णन रहता निश्चित है, किन्तु दूसरेका समय दिया हुआ ही है जिनमें प्रचलित तत्व तथा विचार-धाराओका नहीं है। इन्हीं शिला-लेखों में १२०३ ई०के माण्डवी समावेश रहता है। अनेक अवदानों में 'अहंत' के समीप मिले हुए केशीदेवके शिलालेख में अप- के चरित्र वर्णित हैं। सबसे बड़े 'महावस्तु अव- र्राकका वर्णन पाया है। कदाचित यह वही दान' में बुद्धके पूर्वजन्मोंका ब्योरा दिया हुआ है। अपरांक होगा। केशीदेव अपराकका पुत्र था। [सन्दर्भ ग्रंथ-थेरीगाथा. मूलर-दो प्रोसिडिङ्ग श्राफ याशवल्क स्मृतिके मिताक्षर विधान पर को गई दी श्रोरिअण्टल कांग्रेस एट जिनेवा, गन्धवंश, अवदान. जो अपरांक टीका है, उसका कर्ता यही अपरा- शतक, दिव्यावदान, श्रोल्डेनवर्ग-कॅटलौग आफ पाली | दित्य था। इस टीकाके अन्तमे इसका उल्लेख मैनुरिक्रप्ट ( इण्डिया आफिस लाइब्रेरी ), सुमंगल-विला- | आया है जिससे यह विदित होता है कि वह सिनी (ह्रोल डेविस तथा कार्पेन्टर ), महावस्तु (सेना)] शिलाहार घरानेका राजा था और १३वीं शताब्दी अपराजिता-इस बनस्पतिको संस्कृत भाषा के आरम्भमें हुआ होगा। ११८७ ई. के परल में में 'विश्नुकान्ता' कहते हैं। इसका पौधा बिल्कुल मिले हुए शिलालेखसे पता चलता है कि यह उस छोटा होता है। यह पृथ्वी पर लताकी भाँति समय अवश्य रहा होगा, क्यों कि उस लेखमै फैल जाता है, किन्तु इसका विस्तार अधिक दूर अपरादित्य ने अपने को महाराजाधिराज तथा तक.नहीं होता। . इसके पत्ते बारीक, लम्बे तथा कोकनका चक्रवर्ती कह कर उल्लेख किया है। पाण्डु रङ्गके होते हैं। फूल इसका गहरा लाल अतः ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि पश्चि- होता है, कुछ २ नील वर्णका समावेश रहता है। मीय चालुक्य वंशके नाशके पश्चात् जब सब ओर इसका विशेष उपयोग औषधिमें ही होता है। निरंकुशताका डंका बज रहा था, उसी समयकों कँवल (पीलिया) रोगमें इसकी जड़ छाँछके साथ स्थितिसे लाभ उठा कर अन्य सामन्तोंके सदृश पिलाई जाती है। बवासीरके रोगीको इसकी यह अपरादित्य भी स्वतन्त्र हो गया होगा। जड़का रस घोके साथ मिलाकर देते हैं। [सन्दर्भग्रन्थ-बाँ० ग० वा०१ पा०,२ वाँ० प्र अपरादित्य-(प्रथम) यह कोकनका शिला- रा० ए० सो० ज० पु. १२ तथा विशेषाङ्क इ० अ०९] हार वंशीय राजा था। उरणके समीप ११३८ ई० अपरान्तक-(अपरन्तिका) पश्चिमीय प्रांत (शक १०६०) का जो शिलालेख मिला था, इसमें | अथवा सरहद पर रहने वाली जातियों में से यह इसका उल्लेख मिलता है। काश्मीरके मनोके | भी एक प्रसिद्ध जाति थी। इसका 'अपरान्त्या श्रीकंठचरित्रमें डा. बुल्हर को जिस अपरादित्य नामसे भी उल्लेख होता है। नासिकमें प्राप्त का वर्णन मिला है, कदाचित् वह यही अपरादित्य शिलालेखोंमें से एकमें इसका उल्लेख पाया है, है। इस पुस्तकका समय, डा० वुल्हरके विचार | किन्तु यह स्पष्ट पता नहीं लगता कि यह शब्द से, ११३५-११४५ ई० तकका हो सकता है। जिस किसी प्रदेश विशेषके लिये व्यवहार किया गया है अपरादित्यका उल्लेख श्रीकंठचरित्रमें आया है| अथवा बहाँके निवासियों के लिये। इसका उल्लेख उसने सोपारा (सुरिका) से तेजकंठ नामक | रुद्रदामनके जूनागढ़ के मिले हुए शिला लेखमें भी पंडित को अपने देशका प्रतिनिधि नियत कर मिलता है। काश्मीरके परिडतोकी सभामें भेजा था। यह अशोक द्वारा शासित जातियों में यवन, कम्बोज पण्डितों की सभा काश्मीर के राजा जयसिंह इत्यादिके साथ इनका भी उल्लेख पाता है। पं० (११२६-११५० ई.) के समयमें हुई थी। भगबान लालजी का कथन है कि ठाना जिलेका
- [संदर्भ-ग्रंथ---बाँ. बाँ० ० ए० सो० विशेष अंक | सोपारा नामक जो गाँव है, वह अपरान्त-प्रदेश
१२-१८७७; वाँ० ग० ड्डा० ५ पा. २] । अथवा जातिका एक मुख्य स्थान रहा है। . ... अपरादित्य--(द्वितीय) यह भी कोकनके अपस्मार-आयुर्वेदिक - विवेचनयह एक शिलाहार वंशका दूसरा राजा हो गया है। उस रोग है। हिस्टीरिया, मृगो इत्यादि इसीका रूपा- श्रोरके भूमिदान-सम्बन्धी पाँच शिला-लेख. उप न्तर है। 'स्मृति भूतार्थ विज्ञानं अपस्तत् परि- लब्ध हैं। उनमेले भिवण्डी ताल्लुकेका प्राप्त वर्जन द्वारा इसकी परिभाषाकी गई है। अर्थात् शिला-लेख ११८४ ६० (११०६ शक) का है, परल | जिस रोगमें स्मृतिका नाश हो जाता है, उसे 'अपं- में जो शिलालेख मिला है, सम्भवतः वह ११८७ ई० | स्मार कहते हैं। जब मनुष्यका शरीर तथा मन
- (१९८६ शक) का है। वसई ताल्लुकेमें प्राप्त दो : किसी अन्य व्याधिके कारण मलीन तथा जर्जर
शिला-लेखोंमें से एकका तो समय ११८५ ई०० हो जाता है, अनियमिताहार-विहार द्वारा शक्ति -