पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/४९

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1 अग्नि ज्ञानकोप (अ)३६ अग्निकुल इस ग्रंथमें अग्नि-उत्पति की कथा यों है कि | हास संशोधक मंडल के नवे अधिवेशनमें कहा था, जेहोवाने आदम और ईव ( मानव जातिके मूल ये चार राजपूत वंश अपनेको अग्निकुल' में गिनते स्त्री-पुरुष ) से शन्युत्पत्ति की पद्धति का विवरण है, पर यह ठीक नहीं है। १००० ई० के लगभग थे कहा । जिस समय प्राभ पहले अंधकार में फंस अपनेको सूर्य-चंद्रवंशी मानते थे। 'पृथ्वीराजरासो' गया उस समय ईश्वरके पवित्र मूर्तिने उसे अग्नि में चंदबरदाईने वर्णन किया है कि यज्ञकी रक्षाके उत्पत्ति करनेके लिये दो ईट दी। इस प्रकार लिये महर्षि वशिष्टने अग्निकुण्डसे चार राजपूतों हिव ग्रंथके अनुसार अग्नि की उत्पत्ति ईश्वर की को उत्पन्न किया। इसी कल्पनाको ऐतिहासिक दी हुई ईटोंसे हुई है। आवरण चढ़ाकर ये सूर्य-चन्द्रवंशी चार कुल ज़ोरो-आस्ट्रियन धर्मकी अग्नि पूजा-इरानी और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ानेके लिये अपनेको अग्निके भारतीय धर्मकी अग्नि पूजामै मुख्य दो भेद हैं। वंशज समझने लगे। आगे चारणोंने भी वंशवृक्ष (१) ईरानी धर्मके अनुसार अग्निमै मृतक का तयार कर इनका संबंध अग्निसे जोड़ दिया। संस्कार करना अनुचित समझा जाता है, किन्तु, परन्तु इसका फल अनुचित हुआ। पश्चिमीय भारतीय धर्म में ऐसा नहीं है (२) जितना भार- ' इतिहास अन्वेषक यह मानने लगे कि इन कुलौकी तीय धर्ममें अग्निके काल्पनिक स्वरूप को महत्व | उत्पति हण आदि नार्यकुलोसे हुई थी और ऋषि दिया गया है उसके मुकाबलेमें ईरानी 'श्रानर' का । वशिष्ठने इनको अग्नि-संस्कार कर इनको शुद्ध करके स्वरूप बहुतही अपूर्ण है। कुछ लोगोंका कथन है कि राजपूतों में मिलाया। इससे इनकी सूर्य-चन्द्रवंश ईरानी धर्ममें अग्निको देवता का पद बिलकुल नहीं | की शुद्ध परम्परा नष्ट होने लगी। इसलिये व्यर्थ दिया गया है। भारतीयोंके विषयमें यह ध्यानमें | ही अग्निकुलोत्पन्न कहलानेमें इन राजपूतोको कुछ रखने योग्य बात है कि अग्नि पूजाका लोप होते होते भी लाभ नहीं हुश्रा । प्रथमतः अग्निकुलकी अब वह एक विशिष्ट ब्राह्मण वर्गके ही हाथमें हैं। कल्पना मिथ्या है और इसी लिये कौनसे राजा परन्तु जरतुष्ट सम्प्रदाय का प्रत्येक पारसी प्राचीन अग्निकुल में उत्पन्न हुए हैं इस बातकी खोज पद्धतिके अनुसार अग्निपूजा करता है। करना ही व्यर्थ है।" श्रीयुत वैद्य महोदयका कहना आतर (अग्नि) दिव्य प्रकाश का पार्थिव है कि चंदबरदाई के पूर्व 'अग्निकुल' की कल्पना स्वरूप है । अग्नि "अहुर्मद्' का पुत्र था। उससे प्रचलित न थी। पर यह माननेके लिये हम तयार जरतुष्ण का जन्म हुआ। अग्निके पांच प्रकार नहीं हैं। हैं । अहिमनने अंधकार और धूश्रा को अग्नि का चंदवरदाईके पूर्व ऐसे परमार राजा थे जो रूप माना है। अपनी उत्पत्ति श्रग्निकुलसे मानते थे। परन्तु आतरने आहुर को "आंग्रमैन्यु" से युद्ध करते | ११वीं शताब्दिके पहले इनका अपनेको अग्निकुलो- समय सहायता दी। इसी प्रकार की अनेक त्पन्न माननेके विषय में कोई प्रमाण नहीं मिलता। कथाएं अवेस्ता और पेल्हवी ग्रंथ में दी हुई है। फिर भी यह सन्देह होता है कि 'अग्निकुल' की अग्निके संरक्षक को इस पंथमें धर्म-गुरु मानते | कल्पना बहुत प्राचीन है। प्राचीन नामील साहित्य हैं। ये संरक्षक अग्निको कमी वुझने नहीं देते । | के आधार पर हार्नेलीने लिखा है कि उक्त प्रांतमें अग्निमें मृतकों को जलाना, गोवर इत्यादि गन्दे यह धारणा प्रचलित है कि एक राजवंशकी पदार्थ डालना, इत्यादि कृत्य करनेवालोंको उत्पत्ति अग्नि से हुई। मृत्यु तकका दण्ड है। पारसी धर्मकी उपासना विद्याके श्राश्रयदाता सात राजा तामील देशमें तथा उनकी प्रातःकाल की प्रार्थना-पद्धति प्राचीन हो गये हैं । उनमें परम्बुनाडका राजा 'पारि' सर्व वैदिक पद्धतिसे मिलती जुलती है। परन्तु इस प्रमुख था। चेर, चोल और पांड्य राजाओं द्वारा प्रकार की प्रार्थना का नियम सर्व साधारणमें लुप्त पराजित होने के कारण इसकी लड़कियोके ब्याहकी होता जा रहा है। पारसीमें बड़े बड़े यज्ञ करने ! जिम्मेदारी राजाके ब्राह्मणमित्र कवि कपिलर पर की पद्धति है। उसका वर्णन उचित स्थानों में थी। यह कवि उक्त लड़कियोको जिन दो राजाओं दिया गया के पास ले गया था, उनमेसे एकको उसने अग्नि- अग्निकुल-इसमें चौहान, चालुक्य, परमार कुलोत्पन्न कहा था। यह राजा पश्चिमी घाटके और परिहार इन चार कुलोका समावेश किया । एक पहाड़ी अरयम नामक राज्यका शासक था । जाता है। हिंदी महाभारतमीमांसाके प्रसिद्ध इसका नाम पुलिकडीमाल इरुनगोवेल था । लेखक श्री चिंतामणि विनायक वैद्यने भारत इति 'तिरुविलायडल पुराण के अनुसार कपिलर -- www