पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/५७

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1 -- अग्निपुराण ज्ञानकोश (अ)४७ अग्निपुराण धारण करनेवाला होना चाहिये। (खूदाध्यक्ष) | हानि न करनी चाहिये। राजाके वेष, भाषा, अथवा आचारी अथवा रसोई'दार पाकशास्त्रमै निपुण चेष्टा का अनुकरण न करना चाहिये। जिस होना चाहिये। लेखकका अक्षर उत्तम होना | मनुष्य पर राजाका रोष है उसका साथ अंतः चाहिये (अक्षरवित)। दीवारिक ( ड्योढ़ीदार) पुराध्यक्षको (कंचुकी को) न करना चाहिये। चतुर अथवा वाक्पटु होना चाहिये। वैद्यको राजाकी गुप्त बाते उसको भी गुप्तही रखनी चाहिये आयुर्वेदमें जिगुण होना चाहिये। अंतःपुरका अपना चातुर्य दिखाकर राजाको अपना बना लेना कर्मचारी वृद्ध होना चाहिये। अंतःपुरमें काम | चाहिये। करनेवाली स्त्रियां ५० वर्षकी अवस्थासे अधिक राजाले पुकारते ही चाहे कुछ अाज्ञा की हो और पुरुष ७० वर्षको अवस्था से अधिक होने अथवा न की हो, तत्काल पूछना चाहिये कि चाहिये । अायुधागारमें रहनेवाले मनुष्यको हमेशा । "क्या आला है" ! राजाके दिये हुए वस्त्र, अलं- सावधान रहना आवश्यक है। कार अथवा रत्न धारण करने चाहिये। जिस राजाको नौकरों की परीक्षा कर नियुक्त करना । द्वार से मुमानियत है उससे प्रवेश कभी न करना चाहिये, अर्थात् धर्मिष्ठ को धर्मकार्यमें, शूरों को चाहिये। भाई लेना, थूकना, खाँसना, क्रोधित युद्धकर्म में, निपुणों को अर्थकृत्यमें नियुक्त करना होना, पलंग पर बैठना, माथाचढ़ाना, जोरसे डका- चाहिये। पुश्तैनी नौकरों को निकालना नहीं रला, वातासरण (पादना) इत्यादि राजाके समीप चाहिये। वनगजों को पकड़नेके लिये मंत्री को | न करना चाहिये। अपने गुणों की प्रशंसा राजा निपुणौ की योजना करनी चाहिये । पुश्तैनी नौकरों को सर्वदा विदित होती रहे ऐसे मनुष्यों को को दायाद प्रकरणमै नियत नहीं करना चाहिये। रखना चाहिये! शाठ्य, लौल्य, पेशुन्य, नास्तिक्य, क्योकि "तत्र तेही समा मत:" (?) ऐसा उल्लेख - क्षुद्रता, चापल्य इत्यादि दोष उनमें न होने चाहिये। किया है। शत्रुके घर से भागकर यदि कोई अपने बहुश्रुत होना चाहिये। विद्या, और शिल्पमें उसे श्राश्रयमै श्रावे तो उसे ( वे दुष्ट हो या सुष्ट हो) सदा तत्पर रहना चाहिये । वह कला जानने वाला श्राश्रय देना चाहिये। दुष्टोपर विश्वास नहीं रखना ! होना चाहिये। राजाके पुत्र, स्नेहपात्रो तथा मन्त्री चाहिये । परराष्ट्रमें गये हुए गुप्तचरसे सव समा- इत्यादि लोगों को नित्य नमस्कार करना चाहिये। चार जान लेने पर उसका श्रादर करना चाहिये । प्रधान पर विश्वास न रखना चाहिये। राजा की नौकरोंके दो विभाग करने चाहिये । शत्रु, अग्नि, इच्छा जानकर उससे समयानुसार वर्ताव करना विष, सर्प, और आयुधोंके लिये विशेष नोकर चाहिये। राजाके बिना पूछे बोलना न चाहिये। रहने चाहिये। खराव नौकर एक तरफ रहने | आपत्तिमें भी राजा का काम करना चाहिये। थोड़ा चाहिये । राजाके सब विभागों में जासूस रहने | देनेपर भी संतुष्ट रहना चाहिये। राजाकी स्तुति चाहिये। ये सोभ्य, अपरिचित और उस विभागके सुनतेही सन्तुष्ट होना चाहिये । समय समय पर लोगोंसे भी अपरिचित होने चाहिये। ये | राजा द्वारा निर्वाचित किये हुए लोगोंके पाससे व्यापारी, मंत्रिक ज्योतिशी, वैद्य, तथा संन्यस्तके | हाल चाल लेते रहना चाहिये। समान मालूमहोने वाले, तथा बलावल जानने वाले २२२ में दुर्ग संपत्ति-राजाको दुर्गका होने चाहिये। इन लोगोंपर राजाको पूर्ण विश्वास | आश्रय लेना चाहिये । इस दुर्गप्रदेशमें वैश्य न रखना चाहिये। किसी एकके शब्दपर विश्वास न शूद्रादिकोंकी अधिक बस्ती होनी चाहिये। यह रखना चाहिये । सेवको अथवा प्रजा का क्रोध या| दुर्गभूमि प्रायः शत्रुकी पहुँचके बाहर की होनी प्रेम, गुण और अवगुण जानकर राजाको बर्ताव चाहिये। इस जगहमें ब्राह्मणवस्ती थोड़ी ही करना चाहिये। राजा को सदा यह ध्यान रखना होनी चाहिये। वह जगह देवमातृक न हो चाहिये कि लोगोंके लाभके लिये और प्रजाके ( जहाँ नदी, वर्षा अथवा कुआ इत्यादिका पानी हितके लिये ही वह बनाया गया है। अ० २२१ में बहुत इकट्ठा हो जाता है उसे, देवमातृक कहते हैं) अनुजीविवृत, अर्थात् नौकरको गजासे किस प्रकार अर्थात् यह प्रदेश पहाड़ी होना चाहिये। पानीकी बर्ताव रखना चाहिये इस विषयके नियम दिये हैं। व्यवस्था करनी चाहिये। वहाँ शत्रुका प्रवेश न सेवक को राजाशा शिष्यके समान पालन करनी हो सकना चाहिये। सर्प, तस्कर इत्यादिका भय चाहिये। राजासे प्रिय बोलना चाहिये। अप्रिय इस प्रदेश में न होना चाहिये। दुर्गके छः प्रकार परन्तु हितकर एकांतमें बोलना चाहिये । द्रव्य का हैं। उनका वर्णन इस भाँति है-धनुदुर्ग, मही उपहार न करना चाहिये अथवा राजा की मान- | दुर्ग, नरदर्ग, वातदर्ग, अंधुदुर्ग, तथा गिरिदुर्ग, । श्र ।