पृष्ठ:ज्ञानकोश भाग 1.pdf/७३

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श्यक है। अग्निमान्ध ज्ञानकोश (अ)६३ अचिमान्ध प्रत्येक इन्द्रियोंकी ठीक ठीक क्रिया न होनेसे जठ- । जाती है । जिह्वाका अन भाग लाल रहता है और रादि पचनेन्द्रिय पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता | निनावाँ हो जाता है। कभी कभी जीमका रङ्गमद- है। यदि स्वतन्त्ररूपसे उत्पन्न हुई मन्दाग्निका | मैला हो जाता है। इन सब दशाओमें पाचनशक्तिको आरम्भमें ही ठीक ठीक औषधिउपचार नहीं | सुधारने के लिये उचित चिकित्सा करनी चाहिये। किया जाता तो अन्तमें अन्य रोग भी मनुष्यको रोगके श्रारम्भमें कभी कभी दस्त पाने लगते हैं। आ घेरते हैं । अतः मन्दाग्नि चाहे स्वतन्त्र रूपसे | जितना ही यह रोग पुराना होता जाता है उतना हो अथवा किसी अन्य रोगके कारण हो, प्रारम्भ ही बद्धकोष्ठ होनेका भय रहता है । बहुधा अपचसे में ही इसका उचित रूपसे निदान करना आव. मनुष्यको उतना कष्ट नहीं होता जितना इससे उत्पन्न हुए अन्य रोगोंसे होता है। रोग पुराना लक्षण-भिन्न-भिन्न रोगों द्वारा उत्पन्न हुई हो जाने पर हृदयमें पीड़ा, साँस फूलना, धड़कन, मन्दाग्निके भिन्न-भिन्न लक्षण होते हैं । इन सबका सिरमें दर्द, चक्कर, नेत्र-दोष, हाथ पैरमें ऐंठन, ध्यौरा देना तो यहाँ पर कठिन है, किन्तु साधारण उनका ठण्डा पड़ जाना, भोजनसे ग्लानि आदि लक्षणोंका वर्णन नीचे दिया जाता है । बद्धकोष्ट उत्पन्न हो जाती है । इसका प्रभाव मानसिक अथवा अतिसार द्वारा उत्पन्न हुई मन्दाग्निमें स्थिति पर भी पड़ता है। स्वस्थ निद्रा नहीं आती, जीभ पर सफेद सफेद फुई जमी रहती है और स्वभावमें चिड़चिड़ापन श्रा जाता है, चित्तौ रङ्ग मटमैला होता है, मुखसे दुगन्धि श्राती है, सदा उदासीनता रहती है। तबियत सदा गिरी हुई रहती है और किसी काम उपचार-सबसे पहले केवल भोजन पर ध्यान में रुचि नहीं होती।भूख नहीं लगती,जी मिचलाया देना आवश्यक है। रोगीकी अवस्था, पाचन शक्ति, करता है, खट्टी डकारे श्राती रहती हैं, अक्सर । और कार्यक्रमको भली भाँति समझ कर उसका हृदयशूल होता रहता है और पेटमै अफार रहा ! पाहार निर्णय करना चाहिये। बहुधा देखा जाता करता है। इसी प्रकार आम्लपित्तके रोगीको होता है कि भूखसे भी अधिक खानेकी प्रकृति कुछ रहता है और कभी कभी कै.हो जाती है। मनुष्योंमें होती है, किन्तु यह सदा वर्जित है। निकृष्ट पदार्थोंके खाने से भी यह शिकायत जिन्हें अपच रहता हो उन्हें तो भूखसे कम खाना पैदा हो जाती है। ऐसी दशामें पेट में दर्द हो चाहिये। भोजन पचनेको कमसे कम ६ घण्टे जाता है, जी मिचलाता है, किन्तु यदि कै हो जाय चाहिये। अतः भोजनमें कमसे कम इतना अन्तर तो चित्त स्वस्थ हो जाता है। बहुत दिनोंतक तो अवश्य ही होना चाहिये। जिस भाँति बार- अपच रहते रहते जब यह रोग पुराना पड़ जाता म्बार खाना बुरा है, उसी भाँति बहुत देर तक है तो भोजनोपरान्त पेटमें गुड़गुड़ाहट होती है, भूखा रहना, अधिक उपवास करना भी हानि- कभी कभी दर्द भी होता है किन्तु दर्दन होते हुए भी कारक है । हरएक मनुष्यको अपनी प्रकृति के अनु- पेट सदा भारी रहता है और अफार हो जाता है। कूल ही भोजन करना चाहिये। प्रिय होते हुए चाहे भोजन किया हो चाहे न किया हो; चाहे भी जिस पदार्थसे हानि होती हो उसको न खाना हलके पदार्थ खाये गये हो चाहे गरिष्ठ; ये सब चाहिये। जिनको अपच रहता हो उनको बहुत लक्षण सदा पाये जायेंगे । आमाशय, पक्वाशयमें : पौष्टिक और गरिए पदार्थ नहीं खाने चाहिये। अन्न शीघ्र ही न पचनेसे उसीमे सड़ने लगता हलके पदार्थका सेवन लाभदायक होता है । धीरे है और तब खट्टी और दुर्गन्धि युक्त डकारे धीरे जिस क्रमसे आमाशयमें शक्ति बढ़ती जाय आती रहती हैं। कभी कभी डकारके साथ गरम, उसी प्रकार भोजनमें भी अन्तर करते रहना खट्टा और कडवा पानी में हमें भर पाता है और चाहिये। भोजनके साथ पानी अधिक नहीं पीना उसीके साथ खाये हुए अन्नके कण मुखमें श्रा: चाहिये। भोजनके पूर्व पानी पी लेनेसे पूर्वका जाते हैं। मैं हमें पानी भर पाता है और छाती में विकार दूर हो जाता है और पहला भोजन जलन होती है। ये लक्षण भोजनके कुछ समयके पचनेमै सहायता होती है क्योंकि जठराग्नि प्रदीप्त बाद दृष्टिगोचर होते हैं । धीरे धीरे भूख बिल्कुल होती है। भोजन धीरे धीरे चबा चबा कर बन्द हो जाती है और अनेक खाद्य पदार्थों पर जी | शान्तिपूर्वक करना चाहिये। गर्दनका पिछला चलने लगता है। पेटकी अवस्था जीभसे सूचित भाग, पेट, और अंतड़ियोंको सर्दीसे बचाते रहना हो जाती है। पेटमें कोई विकार होने से जीभ पर | चाहिये। इनको गरम रखने से भोजन पचने में सफेद फुई देख पड़ने लगती है ओर खुरखुरी हो सहायता मिलती है। पैरोंमें मोजे ( सरदी में)