पृष्ठ:टोबा टेकसिंह.djvu/४३

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काली सलवार दिल्ली पान से पहल वह अम्बाला डावनी मे थी, जहा कई गोरे उसके गाहक थे। उन गोरे ग्राहा के कारण वह अग्रेजी के दस-बारह वाक्य मीप गई थी। उन वास्या का वह साधारण बोल चाल म इस्ते- माश नहीं करती थी, लेकिन जब वह दिल्ली में आई और उसका कारोवार न चला तो एक दिन उसने अपनी पड़ोमिन तमचा जान से कहा 'दिस लैंप वरी बड यानी यह जिन्दगी बहुत बुरी है जबकि खाने का ही नहीं मिलता।' अम्बाला छावनी म उसका धधा बहुत अच्छी तरह चलना था। छावनी के गोरे शराब पीकर उसके पास भीमा जाने थे और वह बीस- तीम रपय पैदा कर लिया परती थी। य गार उसने देशवामियों के मुकाबले मे बहुत अच्छे थे। इसमै सदेह नहीं कि वे एमी भाषा बोरात थे जिमका मततर सुलताना को ममझ म नहीं आता था, लेरिन उनकी भाषा स यह अज्ञानता उसके लिए बडी हितकर सिद्ध होती थी। अगर वे उसमे कुछ रियायत चाहते तो वह सिर हिलारर कह दिया करती, 'सार हमारी समझ म तुम्हारी बात नही मानी।' और, अगर वे जबरन से ज्यादा छेड छाड करते तो यह उनको अपनी भाषा म गालिया दना शुरू कर देती थी। पाश्चय मे उसके मुह की प्रार दपते तो वह उनसे कहती सार, तुम एक्दम उल्लू का पटठा है। हरामजादा है समझा।' यह कहते हुए वह अपन स्वर में सस्ती पदा नहीं करती थी बल्कि बडे प्यार स यह सब कहती थी। गोरे हस देत और हसते समय वे सुल- ताना को बिनुन उल्लू के पटठे दिखाई त लक्नि यहा दिल्ली में वह जब स आइ थी, एक गोरा भी उसके यहा नही पाया था। तीन महीने उम हिंदुस्तान के इस शहर में रहत हो 44