पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/१०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
(३)

मदन महीप की अवाई लखि होन लागी, अगल बगल सब फौज लरिकाई की॥२॥

सजि सूहे दुकूलन बिज्जु छटासी अटान चढ़ी घटा जोवती हैं । मुचिती है सुनै धुनि मोरन की रसमाते संयोग संजोवती हैं । कवि ठाकुर वे पिय दूरि बसें हम आँसुन सो तन धोवती हैं। धनि वे धनि पावस की रतियां पति की छतियां लगि सोवती हैं

न्यौते गये धर के सिगरे सो बेरामी को ब्याज कै आजु रही मैं। ठाकुर है बहिरी इक दासी सोराखी बरोठे बिचारि कैजी में । आये भले खिरकी मग है अस आइबो चाहत ही हुती ही मैं। आजुनिसा भर प्यारे निसाभरि कीजिये लालन केलि खुसी मैं। बौरे रसालन की चढ़ि डारन कूकत कैलिया मौन गहै ना। ठाकुर कुंजन कुंजन गुंजत भौरन भीर चुपैबो चहै ना ॥ सीतल मंद सुगंधित वीरसमीरलगे तन धीर रहै ना। ब्याकुल कीन्हों बसन्त बनाय कै जाय कै कन्त सों कोऊ कहै ना ॥५॥

* असनी वाले दूसरे ठाकुर की कविता *

दो०-पुत्र सुकवि ऋषिनाथ को, हौं है ठाकुर नाम । असनी बासी मैं कहो, या लखि गुणधाम ॥१॥

जाहिर जग जयसाह नृप, धीर बीर कछवाह । दक्ष दक्षिणा देत तो, नित प्रति पर्व अथाह ॥२॥

कारे लाल करहे पलासन के पुंज तिन्हैं,

आपने झकोरन भुलावन लगी है री।

ताही की ससेटी प्रण पत्रण लपेटी धरा,

धाम ते अकाश धूर धावन लगी है री।

ठाकुर कहत सुचि सौरभ प्रकाशन मो,

आछी भांति रुचि उपजावन लगी है री।