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पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/९

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जाते हैं जिनको अन्य देशीय कवि सहज रीति से प्रयोग में नहीं ला सकते । जैतपुरी ठाकुर की कविता में बहुधा कोई न कोई लोकोक्ति अवश्य पाई जाती है और उनकी भाषा में ऐसे ऐसे बुंदेलखंडी शब्द और मुहावरे पाये जाते हैं कि अन्य देशीय कवि बिना कठिनता के उनका प्रयोग नहीं कर सकते। इसी कारण हाल में जो 'ठाकुरशतक' ग्रंथ भारतजीवन प्रेस, बना- है बहुत अशुद्ध है। थोड़ी २ कविता बानगी के ढंग पर हम आगे लिखते हैं और भाषाविद् सज्जनों से प्रार्थना करते हैं कि वे स्वयं न्याय कर लें कि हमारा लिखना कहाँ तक ठीक है।

*प्राचीन ठाकुर असनीवाले की कविता *

कोमलता कंज ते गुलाब तें सुगंध लै के,

चंद ते प्रकाश कीन्हों उदित उजेरो है।

रूप रति आनन ते चातुरी सुजानन ते,

नी नीरवानन ते कौतुक निवेरो है ॥

ठाकुर कहत या मसालो विधि कारीगर,

रचना बिलोकि को न होत चित्त चेरो है

कंचन को रंग ले सवाद लै सुधा को,

बसुधा को सुख लुटि के बनायो मुख तेरो है ॥१॥

भूल गई खेल जो जो खेलती खेलौनन ते,

भूलि गई बोलनि बतानि चंचलाई को।

आवन लगी है लाज देखि मनभावन को,

भावन लगी है रोति भांति कविताई की ।

ठाकुर कहत जोर जोबन नकीब आय,

अदल बदल दई ठौर ठकुराई की ।