पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/११

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ताती सीरी बैहर वियोग वा संयोग वारी,

आवनि बसंत को जनावन लगी है री ॥३॥

प्रात झुकामुकि भेष छिपाय कै गागर लै घरते निकरी ती । जानि परी न कितेक अवार है जाय परी जहँ होरी धरीती। ठाकुर दौरि परे मोहि देखि कै भागि बची री बड़ी सुधरीती। वीर की लौ जो शिवार न देउं तो मैं होरिहारन हाथ परी ती॥ आयो बसंत मिलो नहि कंत लो आनंद में तिय कौ लोभरेगी। जेउहूँ ज्वालन सो जरिहै तन काभिन काम सो को लो लरेगी। ठाकुर जौ पैन आइहैं श्याम अराम को कौन उपाय करेगी। साय दरार रही छतिया यह बूद परे अरराय परैगी ॥ ५ ॥

जैतपुरी ठाकुर की कविता ।

दिवरानी जिठानी सबै जगतीं सड़को सुनिहैं न गहो बहियां । हमैं लोवन देउ उलाइत का हरि धीर धरौ हिरदै महियां । कह ठाकुर क्यों उकताव लला इतनी सुनि राखिय मो पहियां। सब रैन धरी न बकाओ हमैं अबै सेर में पोनी कती नहियां । धेर भयो सिगरी नगरी हठि और भयो हमरी बखरी में। बात उजागर सोच कहा जो घटैगी अफा लो कट्टै तखरी में ठाकुर कीरति का बरनौं सो अचानक भेंट गली सँकरी में। मूसर चोट की भीत कहा बदिक जब मूड दियो ओखरी में। पावस में परदेस ते आनि मिलो पिय औ मन भाई भई है। दादुर मोर पपिहरा बोलत तापर आनि घटा उनई है। ठाकुरषा सुखकारी सोहावनि दामिनि कौंध कितै धौ गई है। री अब तो धनघोर घटा गरजा बरसो तुम्हें धूरि दई है ॥ ३॥ पिय प्यार करें ओहि पै सजनी तेहि की सब भांति निभइयत है। मन मान करौं तोपरौं भ्रम में फिर पीछे परे पछतइयत है।