कहि ठाकुर औगुन छोड़ सबै परवीनन लै परखावने है। अब देखि विचार निहारि के माल जमा पर दाम लगावने है ।
हिलमिल लीजिये प्रबीनन सों आठो जाम,
कीजै वह काम-जासों जिय को अराम है।
दीजिये दरस जाको देखिबे की साध होइ,
कीजिये न नीच साथ नाम बदनाम है ।
ठाकुर कहत कछू चित मैं बिचारि देखो,
गरब गहरी को रबैया एक राम है।
रूप सो रतन पाइ जोबन सो धन पाइ,
नाहक गँवाइबोगवारन को काम है ॥ २२ ॥
कैसी करौं कासों कहीं जानत न कोऊ भेद,
'भेद जानिबे की करी कोटि चतुराई मैं।
साँचौह के सौंह देकै निज परतीत कै के,
उनहीं सिखाई सीख सोई ठहराई मैं ॥
ठाकुर कहत प्रीति रीति सरसाइ हिये,
मोद उपजाइ महा ममता बढ़ाई में
हिलि मिलि भाँति भाँति हेत करि देख्यो तऊ,
चेटकी चबाइन के पेट की न पाई मैं ॥ २३ ॥
दस बार बीस बार बरज दई है याहि,
एते पैन मान जो तो जरन बरन देव ।
कैसौ कहा कीजै कछू आपनो करौ न होइ,
जाके जैसे दिन ताहि तैसेई भरन देव ॥
ठाकुर कहत (मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निरसङ्क रस रङ्ग बिहरन देव ।
विधि के बनाये जीष जेते हैं जहाँ के तहाँ,
खेलत फिरत तिन्हें खेलन फिरन देव ॥२४॥