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पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/४८

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ठाकुर- ठसक
 

आजु यहि कौतुक छुको है नंदनंद बीर,

बरनो न जात सो विचित्र चित्र मोपेरी।

चलु बलि तोहि यो दिखाय लाऊँ बन घनो,

पायो है निहार बलिहार भयो सो पैरी॥

ठाकुर कहत कहां नीलमणि सोनबेलि.

मुखमा सकेलि कैन उपमा अरोपैरी।

घनको निहारै तब वारै होत आपुन पै, बीजुरी निहारै तब वारे होत तोपै री ॥६७॥

बरुनीन मैं नैन मुकै उझके मनौ खंजन प्रेम के जाले पर।

दिन औधि के कैसे गनौं सजनी अँगुरीन के पोरन छाले परे॥

कवि ठाकुर ऐसी कहा कहिये निज प्रीत करे के कसाले परे।

जिन लालन चाह करी इतनी तिन्है देखिबे के अब लाल परे।

लगी अन्तर मैं कर बाहिर को बिन जाहिर कोउ न मानतु है।

दुख औ सुख हानि औं लाभ सबै घरकी कोउ बाहर भानतु है

कवि ठाकुर आपनि चातुरी सो सबही सब भांति बखानतु है।

पर बीर मिले बिछुरे की बिथा मिलिक बिछुरै सोई जानतु है


आगीबीच दैके कहूं दारू-गज दाबे जात

पानी बीच दैके कहुँ मीन जीजियतु है।

काम बीच के कहूँ बाम लो वियोग होत,

  • बीच दैकै कहूँ जोग लीजियतु है ॥

ठाकुर रो तुमही बिचारि देखो,

ऐलो रूप पाइ कहूँ मान कीजियतु है।

पीठ देकै बैठती हो पीठऊ पै बेनी परी,

बेनी बीच देकै कहूँ पीट दीजियतु है ॥७०॥