पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/५८

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ठाकुर ठसक कवि ठाकुर यात प्रतीत भई परदेसी के ऊ कोऊ आह गये। अब सांझ सबेरे के काल परों मनभावन आवनहार भये ॥३१०॥ केकी पपोहन की बर बानि झिली झनकार को झाँपति सी । देखि तमासो दिसा विदिसा विरही उर अन्तर कांपति सी । ठाकुर ठाढ़ो मनोहर पास कहै बर बाल निसापनि सी। काम कृपाण, कि डोरी लिये चपला फिरै मेघन मापति सी। सखिन दुराई वृषभान को दुलारी राधे, छाई दुचिताई अति नन्द के नंदन मैं। ऋमि आये बादर झमकि अँधियारी आई, धाई फिरै दामिनी दिखाई देन धन मैं ॥ ठाकुर कहत चारु चातक चढ़े हैं चाउ, आनंद उमंग मत्री मोग्न के गन में। राधे गधे और टेर पीरो पट फेर फेर, हेर हेर हरि डोले गेर गेर बन मैं ॥१२॥ (सवैया) वा बरमै सल धारन सो म धारन याहु मतीत करी है । घूमो रहै धुमडो वा मढ़ो यह लै मुग्ली अधरान धरी है। ठाकुर वाहि मिली चपला अबला मिली याहि चरित्र भगे है देखत जोई कहै धनि सो धन लो धनशाम मोहोड परी है। पात्रम को परपंच बिलोकि अनंग ने बान नियंग ते वाढे। भूमि हरीये परी जहीं बूंद उड़े बाला च" "लै सुख बाढे ठाकुर बोलि उठे मोरवा घन घोरि उठे जितही नित गाते। कामरी मांझ छिपाये छबीली को छाहरे कान्ह कदम्ब के ठाढ़े। सजि सूहे दुकूलन विज्जु छटासी अटान चढ़ी घटा जोवती हैं। सुनतीं हैं महा सुर मारन के मदमाती सँजोग सँजोवती हैं।