सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ठाकुर-ठसक RE 1 कधि ठाकुर वे पिय दूर बसैं हम आँसुन सो तन धोवती हैं धनि वे धनि पावस की रनियां पति को छतियां लगि सोवतो हैं। पावस प्रपंच को तमासो अवलोकत से, दामिनी के पास आय भूमि ना गिरत हैं। मोरन मगन देवि चातकन चाव पेखि, लेखि पति आपनो न थाके से घिरत हैं। ठाकुर कहत हैं छिपत प्रगटत कहूँ. भूले अनुकूले भट सेरे मा भिरत हैं। मंद मंद देखिये नखत बदरान मांझ, मानौ चौंधियाने चन्द ढूंढ़त फिरत हैं ॥११६।। चौक आसमान में अनेक शौक साहबी के, गाहक रिझाइक के ब्योत बिसतारे हैं कोई लाल पीरे कोई सेत नीले धारीदार, कोई रंग सेंदुर के कोई धुंवाधारे हैं ठाकुर कहत देखि बादर अनेक रंग, मन मनसूबा कै बिचार ये बिचारे हैं। बादर न होय बहु भाँतिन के रेजा ये, असाढ़ रंगरेजा रंग सूखिबे को डारे हैं ॥११७॥ कार कारे बद्दल सुहाये कहूँ सेत सेत, कहूँ लाल लाल कहूं आभा पीरी पीरी री। ज्यौं ज्यों होत चंचल दिखात चंचला की चौध, त्वी त्यो धनकी धुकार होत धीरी धौरी री। ठाकुर कहत फिरें चानक चढ़े से चाउ, मोरन की अवली फिरत भीरी भीरीरी। कैसी नीकी लागत सौहाई मुग्म देन आज, मंद मंद बैहर बहस सीरी सीरीरी ॥११॥