पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/६०

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RE ठाकुर-ठसक । चंडित मनोज कैसे झला झूमि भूमि आवें, धूमि घूमि डारें अलबेली तन पानी हैं। दामिनी दमक ठौर ठौरन दिखाई देत, मानो इन्द्र रानी करै मेघ मिजयानी हैं। ठाकुर कहत कूकि कूकि उठे कोइलैं ये, हूकि उठे बिरहा निसंक उर मानी हैं। धरा डारे खूदे प्रेम फास कैला फूई आजु, लेतो द्वार मूदे ऐसी बूर्दै बरियानी हैं ॥११॥ कारे लाल पीरे धौरे धावत धुंगा के रंग, कितने सुरंग किते रंग मटमाढ़े हैं कितने मही के रूप माधुरी करत घोर, सोर चहुँ ओर होत गहगहे गाढ़े हैं। ठाकुर कहत कबि बरनि बरनि थाके, बरने न जात यो बहलि बर बाढ़े हैं। मोहे लेत मनन जो ऐसी बने बनन जू. आजु देखो घनन घनेरे रंग काढ़े हैं ॥१२० ॥ भूमि हरी भई गैलें गई मिटि नीर प्रबाह बहा बेबहा है। कारी घटान अँधेरी कियो, दिन रैन में भेद कछू न रहा है ठाकुर भौन तं दूसरे भौन लौं जात बनै न बिचार महा है। कैसे के आवें कहा करें बीर विदेशी बिचारन दोस कहा है १२६॥ दौरि दौरि दमकि दमकि दुरि दामिनि यौं, दुन्द देत दसहूँ दिसान दरसतु है। धूमि धूमि घहरि घहरि धन घहरात घेरि घरि घोर घनो सोर सरसतु है