पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/६३

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ठाकुर ठसक The कबहूँ यौ सैंयोग के भोग करै जिनकी सुरराज का चाह सी है। कबहूं यो बियोग विथा कोसहैं जोऊ जोगिन हूँ को अकाहसी है कवि ठाकुर देखो बिचार हिये कछु ऐसी अलाहदो राह सी है यह मानस को तन मेरी भटू समयौ परै को बड़ोसाहसीहै १२८ आपनो बनाइवे को और को बिगारबे को, सावधान है के पन्द्रोह सो हुनर भूलि गे दया के सिन्धु करु नानिधान कहूँ, जिन्हें सब विश्व में बनाव को बितर है ॥ ठाकुर कहत रंगे लोभ मोह माया माँहि, कहत शरोर यह अजर अमर है। हाद उन लोगन सो कौन सो उपाय जिन्हे, लोक को न डर परलोक को न डर है ॥१२६॥ ऐसो अन्ध अधम अभागो अभिमान-भरो, कौन सुख मानो तन मानस धरे को यो। लोचत फिरत रंग रोचत रुचा रुच, सोच नहीं होत है बिधाता बिसरे को यो ठाकुर कहत दुःख हरनी दया.,न होइ, तौलो फल पावै निज करनी करे को यो। पावहू पलक की न खबर घरी की एक, बांधत बंधेज जन्म कलप भरे को यो ॥१३०॥ देह गति । याही के निमित्त नित भोजन अनेक भीति, याहो के निमित्त य गय लोजियतु है। याही के निमित्त चौज चातुरी बनाइ सबै, थाही के निमित्त धन धाम कीजियतु है।