पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ठाकुर-ठसका सुर नर मुनि पसु पंछी कैसे मोहतो। रूपवन्त प्रानी जो कसकवन्त होतो कहूँ; सोने में सुगन्ध के सराहबे को को हतो ॥१४२॥ काल कुटिलता। (घनाक्षरी) दंभी दगाबाजन को बाढ़ी है अधिक थाप, शान ध्यान वारेन की बात वे प्रमाना है। पूँछत न कोऊ कबि कोबिद प्रवीनन को, नमकहरामी को हजारन खजाना है। ठाकुर कहत कलिकाल को प्रभाव देखो, झूठन की बातन पै जगत दिवाना है। बड़े बड़े सूबा तेऊ जात पाप डूबा देखि, जीव अति ऊबा या अजूबा कारखाना है ॥१४३॥ रूप है न रस है न गुन है न ज्ञान कहूँ, शील है न सत्य भाई निरस जमानो है ! रीति है न प्रीति है न नीति है न न्याव कहूँ, घर देखियंत हरष हिरानो है। ठाकुर कहत भूलो सकल सँजोग भोग, कठिन कुजोग लोग सबही बिरानो है। कौन को जतैये कहाँ जैये कहाँ पैये बीर! मन बहराइबे को ठौर ना ठिकानो है ॥१४॥ मीरजादे पीरजादे असल अमीरजादे, साहेब फकीरजादे जादे आप खो रहे । रावजादे रोइजादे साहुजादे शाहजादे, असीलजादे नोंद ही में सो रहे ॥ ठाकुर कहत कलिकाल के कहर मांझ, घर