ठाकुर-उसक ३८ काम परे बड़े कामन में कहुँ ह्र विशेष कै आनि सहाई। ठाकुर गौर करौ केहि कारण बैठि रहे मन में अरगाई। थोरिहि बात में धोखो मिटो वढ़ियाई भई कलाई कढ़ि आई १५० हरि लांबी औ चौरी बखानत ते अब गाढ़े परे गुण और कड़े जू गुण और सुनो खजनी उनके कपटी गुरु के चटसार पढ़े जू। कवि ठाकुर यूक यो नैगन की हमसे उनसे नव नेह बढ़े जू । हम जानती ती हरि मीत है हैं न कढ़े, हरितुवामीत्त कढ़े जू हौं बरजी बर बीलक लौ दुलही यहि मारग स्यामरो आवै। ढीठ भई चितवै चहुँ ओर अमंद हँसै हँसि हार हलावै। हों तो कही न बिलोकु गोपालहि यौं उरझी श्रब को सुरझावै जो बिष खाय लो प्राण तजे, गुड़ माय लो काहे न कान छेदावै। खेत कुटुंब ते लीन्ही उखारि नबेर नबेर के स्वाद नबीनी । फेर दुरे दुरे खाई अधाय रची न रुची की जनाय न दीनी । ठाकुर यों कहती ब्रजबाल लो ऊधो सुनो या कथा रस भीनी। खाई कछू बगराई कछू हरि गोपी गुलाम की गाजरे कीनी। दगा देय यार और माता उर बैर माने, मारो चहै पिता तासों कौन बिधि जीजिये। बसे जाकी बांह सो न बांह को निबाह करै, जान के अजान बनै कैले जान दीजिये। चढ़े जाकी नाउ सोइ जाम बूझ बोरो चहै, ठाकुर अजान ता पै दिनै दिन छीजिये राजा है फै तजै न्याउ संगी है कै करै घाउ, बारी खेत खाय तो उपाय कहा कीजिये।१५४॥ यह चारहूँ ओर उदौ मुखचन्द को चांदनी चारु निहार लेस। बलि जोपे अधीन भयोपिय प्यारीतोएतौ बिचार विचार लै री। कवि ठाकुर चूकि गयोजो गोपाल तौ बिगरीको सम्हारि लैरी ,
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