पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/७०

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in ठाकुर-उसक अब रैहै न है यही समयो बहती नदी पांव पखार लै री। वृन्दा सी वृन्द अनेक छली तहं गूजरों नेह सलों को अँगटोहै। और की नाव भयो मन ज्यौं अब जानि परी बल ही जग जोहै। ठाकुर वे ब्रज ठाकुर हैं सु बनी न बनी उनको सब सोहै। मीर बड़े बड़े जात बहे तहं ढोलिये पार लगावत को है ॥ पावस में परदेस ते आनि मिले पिय औ मन भाई भई है। दादुर मोर पपीहरा बोलत तापर आनि घटा उनई है। ठाकुर वा सुखकारी सुहावनि दामिनि कौंध कितै धौं गई है। रो अब तो घनघोर घटा गरजौ बरसो तुम्हैं धूर दई है । पिय प्यार कर जेहिं पै सजनी तेहिं की सब भांतिन सइयत है । मन मान करें तो परों भ्रम में फिर पीछे परे पछतइयत है ।। कवि ठाकुर कौन की कासों कहौं दिन देखि दसा बिसरइयत है। अपने अटके सुन परी भटू निज सौत के मायके जइयत है ॥ देवरानी जेठानी सबै जगतीं खड़को सुनि, न गहौ बहियां । हमैं सोवन देउ उलाइत का हरि धीर धरौ हिरदै महियां । कह ठाकुर क्यों उकताव लला इतनी सुनि राखिय मो पहियां ॥ सब रैन परी न खिझाओ हमैं अबै सेर में पोनी कती नहियां ॥ धैर भयो सिगरी नगरी हठि बैर भयो हमरी बखरो में। बात उजागर सोच कहा जो घटैगी जफा सो कदै तखरी में ॥ ठाकुर कीरति का बरनौ सो अचानक भेंट गली सँकरी में मूसर चोट की भीति कहा बजिकैजब सूड दियो ओखरी में ॥ मूढ़ सुलै कव राम कथा, कब दै धन पूजत विप्र बिरागी। सूमन को धन मूसत चोर; कि लूटत भूप, कि लागत श्रागी । ठाकुर धर्म के हेत लो तो दुख पुंज कथै हरि के हित लागी। आनन उंच उठाय ज्यौं रोवत संख सुने शठ स्वान अभागी॥ खुरो मानती जो सिख देत भट्ट दुख पावती जो समुझाइबे में।