पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ठाकुर-ठसक। कही जायगी देखि कुरीति कछू समझौगी न बात बुझाइब्जे में ॥ कहा पाओगी हाथ पराये बिके कह ठाकुर लोग हँसाइबे में हमैं को गनै कासों परोजन है बुनिबे में न बीन बजाइबे में।१२। हो ही समय लखि कै उत आइ कहो करिहौंसब रावरे जीको । बारहो बार न ऐये इतै यह मेरो कछू है परोस न नीको । ठाकुर चाह भरे नितही तुम हार लै प्रावत मौलसिरी को। कोऊ कहूँ लखिलेय जोयाहि तोहोय ललामोहि लीलकोटीकोर६३ हम तोपर-नारिभई सो भई तुम तो सुधरौ सखियाँ सिगरी । यह रीत चले जग नाम धरै तिहि ते न कढ़ो मग मो ढिगरी ॥ कबि ठाकुर फाटी उलङ्क की चादर देउँ कहाँ कहँलो थिगरी । तुम श्रापनी ओरबचाव करौहम तो बनकै धिगरी बिगरौं ।१६४॥ परिगे किधौं काहु के पाले अरीगुरू लोगन के डर सो डरिगे । दिन बूड़त ही ते किवारे लगे मग हेरो न मेरी बिथा हरिगे ॥ कहि ठाकुर औध हती दिन बूड़त आवन की री घरी धरिगे। अधिरातभई हरिाये नहीं हमे ऊमर को सहिया करिगे।१६५। साँची करारे करी हमसों हमतौ तऊ नेकु न मानती ती । उन बामन है बलि जाइ छले हम सो बतियाँ पहिचानती ती ॥ कवि ठाकुर बीधिगई अँखियाँ तिनसौं मिलिकै सुख मानती ती। तुम तो अबराम के राजकरौहमतौधरेबासन जानती ती १६६॥ नाध नधो है तिहारे पिया सतरातों कहा कोउ स्यान सिखैहै। पानिप नै के चले सजनी, यह भाति न प्रीत सदा निरबैहै ॥ ठाकुर जो पै यही करने तो कहा मनमोहनी क्रोध करैहै। लैहै नहीं मुरगाजेहि गाँव भटू तिहि गाँव का भोर ना ह है। १६७। का कहिये कहिब की नहीं मग जोवत जोयत जो गयी है। उन तोरत बार न लाई कछू तन ते वृथा जोबन खो गयौ है ।। ऊमर-गूलर सहिया कीडा