ठाकुर-ठसक कहि ठाकुर कूवरी के बल ह रस मैं बिस बावरी वो गयौ है। मनमोहन को हिलियोमिलियो दिन चारिक चैत सोहोगयौ है। यह प्रीति अजार को औरै तबीच परन्तु कछू सुनलोजतु है। तुम बैद भई फिरौ भेद न जानतीं रोगन सौ तनु छोजतु है । कवि ठाकुर रोगन के री इलाजन एक से एक ते कोजतु है। जग एकन को भैंटे बाइरेबोर सो एकन को पथ दोजतु है१६९ अपने नहिं होत पराये पिया यह जानत मैं अरु बेदन गाई। सो अबहेलि कै प्रोति करी गुरु लोगन की कुलकानि गँवाई ॥ ठाकुर ते न भये अपने अब कौन को दोस लगाइयै माई। दूध की माखी उजागर बीर सुहाइ मैं आँखिन देखत खाई ।१७० को उनसों परवीन बड़ो अपकीरत आपनी और सुनावै। आजुबनी जो बनी सु बनी अब का कहिकै कोउ बाद बढ़ावै ।। ठाकुर एक बिचार हिये अब नीर उलीचि को कीच मचावै। ऐसेही लोच के सोचैपर अब ऊमर फोरि कोजीव उड़ावै।१७१॥ बन जाइ बने, बिगरै बिगरे भरमाये न काहू कहे लचिये । जग आपनो रङ्ग पसार न औरन के रंग में रचिये ॥ कहि ठाकुर या भवसागर में परि नेह कलङ्कन सों बचिये । अब ऊधो सुनो यह प्रीत की रीत जुकाछिये काछ सुई नचिये ।। सुनि कै धुनि यौं चित में हुलसी उत जैये घने सुख पावने री। ढिग आन लख्यौ उनकी उलटी कहूं ताल कहूं सुर गावनेरी॥ कहि ठाकुर भूल सु नैनन की तिन सों कहा नेह बढ़ावने री। चलु दूर भटू हौं वृथा भटकी लगैं दूर के ढोल सुहावने री।१७॥ घर बाहिर लोग लुगाइन नैं परपञ्च रचे सो बिचारने है। फिर जानतराम दाऊदिसि की असचित्त तैनाहिँ बिसारने है। कवि ठाकुर स्याम सुजान सुनौ करि एक दोऊ निरधारने है। ॐ बाइरे-बादी बढाने वाले।
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